उपन्यास– कस्बाई सिमोन
लेखिका– शरद सिंह
प्रकाशक – सामयिक प्रकाशन,
नई
दिल्ली
पृष्ठ– 208
कीमत– 150 /- ( पेपरबैक )
‘सेकेंड सेक्स’ की लेखिका सिमोन द बोउवार का जन्म पेरिस में हुआ| सिमोन ने और भी किताबें लिखी| उसने अपने प्रेमी ज्यां पाल सार्त्र के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया, लेकिन उसके साथ रही| इतना ही नहीं, उसके साथ रहते हुए दूसरे पुरुष से प्रेम भी किया| वह स्त्री स्वतन्त्रता की प्रबल समर्थक थी| उसका कहना था कि ‘औरत को यदि स्वतंत्रता चाहिए तो उसे पुरुष की रुष्टता को अनदेखा करना ही होगा|’
सुगंधा भी इसी जीवन दर्शन को अपनाती है| उसके लेख भी नारी
स्वतंत्रता की बात करते हैं| सुगंधा नायिका है ‘शरद सिंह’ के उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’ की | सिमोन पेरिस में रहती थी, जबकि सुगंधा जबलपुर और सागर जैसे
कस्बों में, इसलिए वह कस्बाई सिमोन है|
‘कस्बाई सिमोन’ नामक उपन्यास फ्लैश बैक तकनीक में लिखा गया है| इस उपन्यास को सात अध्यायों में विभक्त किया गया है, लेकिन पहले शीर्षक का कोई नाम नहीं| दरअसल इसकी शुरूआत
अंतिम अध्याय का हिस्सा है| सुगंधा रितिक को सोचते हुए अतीत में उतरती है| वह अपने बारे में भी रितिक के दृष्टिकोण से सोचती है –“क्या
मैं सचमुच वैसी हूँ, जैसा
रितिक कहता है, ‘किसी
भी पुरुष को देख कर लार टपकाने वाली ’?” (पृ. -14)
सुगंधा इस स्थिति में पहुँची हुई है कि जब भी किसी पुरुष को देखती है या
किसी पुरुष के ताप को अनुभव करना चाहती है, तो उसकी तुलना रितिक से करती है| सुगंधा के शब्दों में –“कभी-कभी तुलना इस सीमा तक जा पहुँचती है
कि चुंबन, आलिंगन
और काम की सभी कलाओं के दौरान वह मेरे और अन्य पुरुष के बीच आ खड़ा होता है, संजोए
हुए अनुभव बनकर|” (पृ.
–
11)
सुगंधा अपनी कहानी रितिक से संबंध समाप्त होने के बाद से सुनाना शुरू करती
है| विवाह के बारे में वह बताती है –
“मैंने
सोच रखा था कि मैं कभी विवाह नहीं करूँगी| मन के अनुभवों की छाप
मेरे मन-मस्तिष्क पर गहरे तक अंकित थी| उसे मैं चाह कर भी
मिटा नहीं सकती थी|” (पृ.
–
13)
इसी छाप को मन पर संजोए उसकी मुलाक़ात
रितिक से होती है, हालांकि दफ़्तर में कीर्ति के दबंग पति को देखकर शादी फायदे का सौदा भी लगती
है, लेकिन यह बात उसका विचार नहीं बदलती|
रितिक से उसकी मुलाक़ात एक बरसाती शाम को होती है| वह उसे बरसाती शाम को घर तक लिफ्ट देने का प्रस्ताव रखता है | सुगंधा अब सोच रही है – “यदि मैंने रितिक का
प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया होता तो ? तो शायद मेरी ज़िंदगी
जैसी अभी है, वैसी
कदापि नहीं रहती | इससे
अच्छी होती अथवा इससे बुरी| कौन
जाने !” (पृ.
–
20)
रितिक उसके घर का रास्ता जानता है, अर्थात वह उसका पीछा
करता रहा है, यह बात सुगंधा के मन में प्रश्न उठाती तो है लेकिन वह अपना जादू
चलाकर गया है तभी तो वाशरूम में उसकी स्थिति ऐसी है – “मैंने
अंत:वस्त्र को भी अपने शरीर से अलग कर दिया| मैंने अपने शरीर को
देखा, स्त्रीत्व
की मुझ पर अच्छी-खासी कृपा थी| मेरी देह किसी भी पुरुष को लुभा सकती थी
|” (पृ.
–
23)
रितिक के मिलाप से उसे लगता था कि जीवन उसी के इशारे पर चल रहा हो –
“देह
की भूख ने मुझे कभी इतना प्रभावित नहीं किया जितना प्रेम की प्यास ने| मुझे
सदा यही आकांक्षा रहती कि कोई ऐसा हो जो मुझे और सिर्फ मुझे चाहे| रितिक
यही तो प्रदर्शित कर रहा था|” (पृ. – 25)
सुगंधा की तरह रितिक भी शादी विरोधी है – “शादी-वादी फिजूल की
बातें हैं| मैं
शादी नामक रस्म में विश्वास नहीं रखता| क्या होता है शादी
करके ? बच्चे
पैदा करने का लाइसेंस ही तो मिलता है, बस !” (पृ. – 28)
दोनों की सोच मिलती है और रितिक उसे ‘ लिव इन रिलेशनशिप ’ में रहने का प्रस्ताव देता है और यह फंडा उसे अपने ढंग का लगता है –“बिना
विवाह किए किसी पुरुष के साथ पति-पत्नी के रूप में रहने की कल्पना ने मुझे
रोमांचित कर दिया था| इसमें
मुझे अपनी स्वतंत्रता दिखाई दी |” (पृ. – 31)
इसके बाद लेखिका उपन्यास के अध्यायों का नामकरण करती है| दूसरा अध्याय है – ‘सहमे हुए दिन’| इस अध्याय में सुगंधा अपने बचपन के दिनों का वर्णन करती है| माँ-बाप में तकरार है, मार-पीट होती है और आखिर में माँ पिता
का घर छोड़ने का निर्णय लेती है| सुगंधा को भी पिता से लगाव नहीं था और
न ही उसके पिता को उससे| सुगंधा कहती है – “पापा
मेरे मन के निकट कभी रहे ही नहीं|” (पृ. – 49)
इसका कारण भी लेखिका ने दिखाया है| सुगंधा के बर्थडे का
हाल ये है –“हैप्पी
बर्थ डे सुगंधा! हैप्पी बर्थ डे टू यू!’ माँ ने गाने के सुर
में बोलते हुए मुझे जन्मदिन की बधाई दी थी| उस समय घर पर मैं थी
और माँ थी, बस
!
कोई हंगामा नहीं, कोई
चहल-पहल नहीं, यहाँ
तक कि पापा भी घर पर नहीं थे| उस दिन पापा और देर से घर लौटे थे| व्यस्तता
के कारण या जानबूझकर, पता
नहीं ?” (पृ.
–
34)
भले ही सुगंधा को पिता से लगाव नहीं था और वह अपनी मर्जी के साथ माँ के साथ
आई थी लेकिन उसे इसका दुःख तो था – “ पापा
ने हठ भी नहीं किया| यह
बात मुझे सदा सालती रही| क्या
मैं उनकी बेटी नहीं थी ? क्या
मैं उनका अपना खून नहीं थी ? उन्होंने माँ के साथ-साथ मुझे भी स्वयं
से अलग कर दिया, क्या
यह उचित था ?” (पृ.
–
53)
माँ उसे लेकर भोपाल पहुँचती है, अपनी सहेली नूतन के
पास| फिर वह किराये के घर चली जाती हैं| सुगंधा को स्कूल
पढ़ने लगाया जाता है| गृहस्थी का सामान जुटाया जाता है| सुगंधा इस सबका अपने
ऊपर प्रभाव दिखाते हुए लिखती है – “मैं वाकई समय से पहले
बड़ी हो रही थी |” (पृ.
–
44)
सुगंधा इन हालातों में ख़ुश है, लेकिन यहाँ मकान मालिक का बेटा मोहन उसे
परेशान करता है –
“कपड़े
धुल चुके थे| धुले
हुए कपड़े समेट कर मैं बाल्टी उठाने ही वाली थी कि मोहन आ धमका| आते
ही उसने मेरे हाथ से बाल्टी छुड़ाई और मुझे अपनी बाँहों में भींचकर चूमने लगा| भय
के मारे मेरा गला सूख गया| मैं
चाहकर भी चीख नहीं पा रही थी| मैं छटपटा रही थी स्वयं को उसकी पकड़ से
छुडाने के लिए| उसने
एक बांह से मुझे दबोचे रखा और दूसरे हाथ के पंजे से मेरी छातियाँ मसलने लगा| मेरा
भय अपनी पराकाष्ठा पर जा पहुंचा |” (पृ. – 47)
माँ इसके बाद किराये पर नया घर ले लेती है| इसी बीच माँ की
ज़िंदगी में सेलट अंकल आते हैं| जीवन की गाड़ी सही पटरी पर चलने लगती है| वह कॉलेज में पहुँच जाती है| गुजराती लड़की रीता
चूड़ासामा उसकी सहेली बन जाती है जो उम्र में उससे बड़ी है और वही उसे पहली बार यौन
संबंधों की जानकारी देती है| लेकिन इस जीवन को बदरंग कर देती है
सेलट अंकल की पत्नी| वह सुगंधा की माँ को कुतिया, रंडी, वेश्या तक कह जाती है| सेलट अंकल से माँ के संबंध खत्म हो
जाते हैं और दो सप्ताह बाद वे घर बदल लेती हैं |
तीसरा अध्याय है – ‘मुंहबोला भाई या...’| यह मुंहबोला भाई रितिक ही है| लेखिका कहानी को उस
मोड़ पर ले आती है यहाँ रितिक और सुगंधा लिव इन रिलेशन में रह रहे हैं| सुगंधा की सोच है –
“पति
बनते ही पुरुष अधिकारों से इस तरह भर जाता है कि उसके विचारों का आकार-प्रकार ही
बदल जाता है| जिस
औरत पर वह जान छिडकता था, जिस
औरत के पाँव में काँटा चुभने पर टीस उसके दिल में उठती थी, उसी
औरत को मारने-पीटने का अधिकार उसे मिल जाता है और वह इस अधिकार का प्रयोग करने से
भी नहीं चूकता है|” (पृ.
–
64)
पति बने बिना रितिक उसके घर आता-जाता, रात को रुकता| इससे मुहल्लेवालों को परेशानी हुई तो उन्होंने शिकायत सुगंधा के कार्यालय
में कर दी| हालांकि शिकायत पर कोई कार्यवाही तो नहीं हुई लेकिन विवाह का सुझाव जरूर
मिला - “इस
समाज में किसी भी औरत को युवा होते ही किसी न किसी पुरुष के नाम का पट्टा अपने गले
में डाल लेना चाहिए|” (पृ.
–
68)
ऐसे सुझाव पर सुगंधा विरोध करती है – “वाह
! यह भी खूब रही, लोग
चाहते हैं तो आप शादी कर लीजिए, लोग चाहते हैं तो आप तलाक ले लीजिए, लोग
चाहते हैं तो आप ज़िंदा रहिए, लोग चाहते हैं तो आप मर जाइए, मेरा
अपनी जिन्दगी पर कोई अधिकार है या नहीं? ” (पृ. – 67)
सुगंधा अपनी ज़िंदगी पर अपना अधिकार भी चाहती है, लेकिन लोगों के अनुसार चलने को भी बाध्य होती है, क्योंकि रहती तो वह इसी
समाज में ही है| सबसे पहले उसे घर बदलना पड़ता है और नई जगह जाते ही झूठ का सहारा लेते हुए
प्रेमी को मुँहबोला भाई बनाना पड़ता है, और इस झूठ के कारण
जब वे दोनों एक घर में रहने का फैसला करते हैं तो नई जगह जाना पड़ता है |
चौथा अध्याय है – ‘कॉपर-टी’| इस अध्याय में रितिक और सुगंधा साथ-साथ रहने लगते हैं| यह खबर रितिक के घर वालों तक पहुँच जाती है| रितिक के पिता
उन्हें समझाने का प्रयास करते हैं, शादी को सुरक्षित
बताते हैं, लेकिन रितिक असहमति दिखाता है – “सुरक्षित! मई फुट! आए
दिन सैंकड़ों तलाक होते हैं, मियां-बीवी
एक-दूसरे को धोखा देते रहते हैं, और आप कहते हैं कि विवाह पारस्परिक
संबंधों को सुरक्षित रखता है, मैं नहीं मानता|” (पृ. – 93)
रितिक के पिता तो समझा-बुझाकर चले जाते हैं, लेकिन रितिक की माँ सुगंधा को
फोन पर लताड़ती है – “ छिनाल औरत, यदि
किसी की रखैल बनना ही है तो हजार आदमी तेरे दफ़्तर में ही होंगे, मेरे
बेटे के पीछे क्यों पड़ी है ? उसकी ज़िंदगी क्यों बर्बाद कर रही है ? अरी
छिनाल, इतनी
ही आग लगी है तो लुआठी घुसेड लेती अपनी ... में ?” (पृ. – 97)
रितिक की माँ होने के कारण वह उसके स्तर तक नहीं उतरती, लेकिन यह बात उसे आहत करती है| यह गालियाँ उसे
दफ़्तर में सिकरवार के सामने मिलती हैं, सिकरवार इस पर कहता
है –
“तुम
नीना गुप्ता, सुष्मिता
सेन या करीना कपूर नहीं हो, तुम
एक कस्बे की और मध्यवर्ग के लड़की हो, ये सब पैसेवालों और
महानगरों के जीने के तरीके हैं, तुम जैसी लडकियाँ दुःख ही पाती हैं, चैन-सुकून, अधिकार
और सम्मान नहीं| आगे
तुम स्वयं समझदार हो !” (पृ.
–
98)
लेखिका इस माध्यम से समाज का दोगलापन दिखाती है, जो सामान्य लोगों से अलग
प्रकार का और बड़े लोगों से अलग प्रकार का व्यवहार करती है| सिकरवार का सुझाव अर्थ नहीं रखता, क्योंकि उसे पल्लवी मिश्रा की याद आ जाती
है, जिसे भोपाल में उसके ससुराल वालों द्वारा जला दिया गया था | सास उसके लिए खतरनाक जीव है, वह सोचती है – “अच्छा
है कि मैं उनकी बहू बनने वाली नहीं हूँ| उन्हें मुझे मारने का
सास रूपी लाइसेंस तो नहीं मिल सकेगा|” (पृ. – 102)
वैसे वह यह भी सोचती है कि बहुओं के दब्बूपन के कारण ही सास अत्याचार कर
पाती है| वह पुरुषों के पौरुष पर सोचती है – “अरे हाँ, जब
किसी बहू को जलाया जाता है तो उस समय उसके ससुर और पति जैसे पुरुषों की क्या
भूमिका रहती है ? उस
समय उनका पौरुष कहाँ चला जाता है कि वे अपनी बीवी या माँ को किसी को जलाने या
मारने से रोक नहीं पाते हैं| क्या ऐसे पुरुषों का पौरुष सिर्फ उनकी
जंघाओं के बीच ही सीमित रहता है ?” (पृ. – 104)
सुगंधा की माँ को भी इसकी खबर मिलती है| वह भी शादी के पक्ष
में है और उसे समझाती भी है और चेताती भी है – “यह
याद रखना कि हमारा समाज अभी भी पुरानी परंपराओं का कट्टर पोषक है, वह
तुम्हें चैन से जीने नहीं देगा|” (पृ. – 108)
सुगंधा भी इससे सहमत है – “स्त्री और पुरुष के
बीच का मामला हो तो दोषी स्त्री को ही माना जाता है, विशेष रूप से चरित्र
के प्रश्न पर| पुरुष
‘छोड़
दिए जाने’ पर
भी छोड़ा गया नहीं कहलाता| परितक्त्य
पुरुष पर अनेक माँ-बाप की आँखें टिक जाती हैं, अपनी सच्चरित्र
बेटियाँ ब्याहने के लिए, जबकि
परितक्त्या स्त्री को लोग भोगी जा चुकी स्त्री का दर्जा देकर महज उपभोग की वस्तु
के रूप में देखने लगते हैं... और जो उस भोगी जा चुकी परितक्त्या स्त्री को अपनाता
है, उस
पर ‘दया’ अथवा
‘अहसान’ करता
है|” (पृ.
–
109)
सुगंधा अपनी माँ के मामले में इसे देख चुकी है, लेकिन माँ की ऊँगली पकड़कर
चलना अब उसे उचित नहीं लगता है| वह अपने पथ पर दृढ़ता से आगे बढ़ना चाहती
है| वह चलती भी है लेकिन सेक्स से बच्चे भी पैदा होंगे और सुगंधा बच्चे को लेकर
दुविधा में है और ख़ुद से पूछती है – “सिर्फ
अपने भविष्य को सुरक्षित बनाने के उद्देश्य से एक बच्चे को जन्म देना और उसे
अविवाहित माँ की संतान के रूप में इस समाज रूपी जंगल में समाज के ठेकेदारों रूपी
खूंखार पशुओं के बीच जीने को विवश करना क्या उचित होगा?” (पृ. – 116)
आखिर में वह बच्चे न पैदा करने का निर्णय लेती है| रितिक को कंडोम का प्रयोग पसंद नहीं, इसलिए वह दोनों
प्रकार की कांट्रेसेप्टिव पिल्स का प्रयोग करती है, लेकिन इसके
साइड इफ़ेक्ट देखते हुए कॉपर-टी लगवा लेती है |
पाँचवां अध्याय ‘कानूनी दाँव-पेंच’ है| रितिक और सुगंधा अपना घर लेने की सोचते हैं क्योंकि बार-बार घर बदलने से
तंग हैं| रितिक बड़ा-सा घर देख लेता है, जो काफ़ी महंगा है| सुगंधा न चाहते हुए भी इस घर को स्वीकार कर लेती है| वह सोचती है –
“पता
नहीं क्यों मैं सख्त नहीं हो पाई| शायद घर का मामला था और मेरे भीतर बैठी
गृहिणी भी ठीक वैसा ही बड़ा-सा घर पाना चाहती थी या फिर मैं रितिक के क्रोध और
आक्रोश से डरने लगी थी, एक
पत्नी की भाँति|” (पृ.
–
134)
पत्नी की तरह का भाव सुगंधा को अक्सर घेरने लगता है, ऊपर से मकान की रजिस्ट्री में उसे रितिक की पत्नी दिखाया जाता है| यह भाव अगले अध्याय ‘करवाचौथ’ में और अधिक बढ़ता है, जब वह पड़ोसियों से अपने वास्तिक संबंध छुपाती है और
करवाचौथ की परंपराओं को निभाती है, हालांकि वह व्रत
नहीं रखती| इस पर रितिक उसे टोकता भी है – “लेकिन इस तरह क्या
तुम कमजोर नहीं पड़ रही हो ? तुम्हीं
ने तो कहा था कि तुम परंपरागत पत्नी की तरह जीवन नहीं बिताना चाहती हो, फिर
यह सब क्या है ?” (पृ.
–
146)
इसी अध्याय में उनके संबंधों में कडवाहट उभरती है| रितिक भी पति बनता जा रहा है - “अब वह मुझे झिड़कने भी
लगा था| कई
बार बिलकुल परंपरावादी पति की तरह|” (पृ. – 147)
सेक्स संबंधों में भी बदलाव आया – “अब वह बिस्तर पर उतना
जोश भरा नहीं होता, जितना
पहले रहता था| जिस
समय वह चाहता था, मुझे
शयनकक्ष में घसीट ले जाता था| ‘कैसा रहा ?’ पूछने
की आवश्यकता भी महसूस नहीं करता था, जैसे पहले पूछा करता
था|” (पृ.
–
148)
वह पहले के रितिक के साथ अब के रितिक की तुलना करने लगी है –
“क्या
ये वही रितिक है, जो गाउन का एक-एक बटन खोलते हुए प्रशंसा के फूल बरसाता था ? क्या
ये वही रितिक है जो देह के समुंदर में गोते लगाता हुआ, कान
में फुसफुसा कर कहता था, तुम
अद्भुत हो!” (पृ.
–
148)
जब संबंध बिगड़ते हैं तो अच्छे की कोशिशें बुरा नतीजा लेकर आती हैं| ऐसा ही कुछ सुगंधा के साथ हो रहा था – “लेकिन
पुरुषों को अच्छे-भले में भी उल्टा-सुलटा सूँघने की आदत प्रकृतिदत्त होती है| अपने
दैहिक संबंधों में ताजगी बनाए रखने के लिए मैं जो भी कलाएँ अपनाती उन्हें रितिक
संदेह की दृष्टि से देखता था|” (पृ. – 153)
इस उपन्यास का अंतिम अध्याय है – ‘मेरे भीतर की स्त्री’| रितिक उसके लिए रखैल शब्द का प्रयोग
करता है और उनके संबंध एक झटके में टूट जाते हैं | “प्रेम समाप्त तो साथ
समाप्त, हमारे
बीच सब कुछ समाप्त|” (पृ.
–
157)
सुगंधा अपनी माँ के पास पहुँचती है| माँ से जीवन-दर्शन
की बातें सुनकर सोचती है –“वाकई
जीवन को समझने के लिए ढेर सारी किताबें पढ़ना जरूरी नहीं है, जीवन
को समझने के लिए जीवन के अनुभवों से गुजरना अधिक जरूरी है |” (पृ. – 166)
वह अपना तबादला जबलपुर से सागर करवा लेती है| सागर में वह एक नई
उन्मुक्त ज़िंदगी शुरू करती है| पहले उसके संपर्क में आता है ऋषभ, जो
प्राध्यापक है और प्रोजेक्ट हेतु सागर आया है| दोनों बड़ी जल्दी
प्रेम में गोते लगाने लगते हैं, बकौल सुगंधा –“मुझे
लगता है कि पहले बार किसी के प्रति आकर्षित होकर कदम बढ़ाने में समय लगता है, दूसरी
बार में नहीं|” (पृ.
–
167)
ऋषभ के साथ के बारे में वह कहती है – “ऋषभ
से मिलने के बाद मैं अपने सारे दुःख, पछतावे भूल चुकी थी| बस, मुझे
याद रहता था तो यह कि मैंने कॉपर-टी नहीं निकलवाया है और मैं चाहे जितना संभोग
करूँ, मुझे
गर्भधारण का भय नहीं है| यह
एक आवारा-सी सोच थी, लेकिन थी मेरे हित की| मैं स्वतंत्रता का
दुरूपयोग नहीं कर रही थी| एक
समय में मैं एक ही की होकर रह रही थी |” (पृ. – 169)
यह सफ़र ग्यारह माह का था और ऋषभ इसे
खुजराहो देखकर समाप्त करना चाहता है | दोनों खुजराहो
पहुँचते हैं | खुजराहो में वे मूर्तियाँ देखते हैं – “मैं
मूर्तियों में कला देख रही थी और ऋषभ उन्हीं मूर्तियों में कामकलाएँ देख रहा था| मैं
भी देख रही थी, लेकिन यह सोचती हुई कि कलाकारों ने इसे कैसे बनाया होगा ? इन्हें
बनाते समय क्या वे कामातुर नहीं हुए होंगे ? किंतु कामातुर व्यक्ति
अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कैसे कर सकता है, जबकि उसका लक्ष्य
कामकला को ही उकेरना हो ? एक
पहेली-सी थी यह मेरे लिए|” (पृ.
–
175)
सुगंधा यह भी सोचती है – “उन मूर्तियों में
दर्शाए गए कामासनों को देख कर मुझे समझ में आ रहा था कि काम को कला क्यों कहा गया
है| किसी
भी कला में व्यक्ति सतत अभ्यास करके ही निपुणता प्राप्त करता है| काम
कला में भी निपुणता पाने के लिए ये लोग इसी तरह सतत अभ्यास करते रहे होंगे|” (पृ. – 176)
ऋषभ वहाँ से तस्वीरों की पुस्तक खरीदता है और कमरे में आकर उन्हें देखता है
तो सुगंधा को रितिक याद आता कि क्या वह तस्वीरों को देखने में वक्त गंवाता| वैसे ज्यादा वक्त ऋषभ भी नहीं गंवाता और एक आसन आजमाने को कहता है, जिसमें सुगंधा को कोई आपत्ति नहीं|
यह संबंध लेखिका ने एक झटके में तोडा है, हालांकि इसका कारण
सुगंधा के मुख से कहलवाया भी है – “मैंने पाया कि रितिक
से अलगाव के बाद मैं पुरुषों को लेकर और अधिक कठोर हो गई थी|” (पृ. – 178)
कस्बाई सिमोन अब सिमोन की पुस्तक ‘सेकेंड सेक्स’ को आद्योपांत पढ़ती है| वह अब उस जैसा ही नहीं उससे आगे बढ़ना चाहती है| अब उसे विशाल पटेल मिलता है, जो बैंक में कार्यरत है, लेकिन थियेटर का आदमी
है| यह संबंध धीमी गति से आगे बढ़ते हैं, क्योंकि विशाल कोई कदम आगे नहीं बढाता| वह कहती है –
“ऋषभ
तो जल्दी ही बिस्तर पर आ गया था| उसकी हर बात में यौन प्रसंगों का इतना
समावेश होता कि मैं भी भावनाओं में बह निकलती, किंतु
विशाल में एक ठहराव था| वह
अनावश्यक यौन प्रसंग नहीं छेड़ता था| इससे मेरा मन भी
नियंत्रित रहता था| ” (पृ.
–
190)
लेखिका इस अध्याय में कीर्ति का सच भी उजागर करती है| कीर्ति का पति सदाशिव कीर्ति के जिस्म को परोसकर ठेके लेता था| कीर्ति सुगंधा को रितिक से मकान के पैसे लेने के लिए कहती है और उसके जरिए
वह इसका प्रयास भी करती है| इसी कारण रितिक से उसकी फिर भेंट होती है, जो गाली-गलौच तक पहुँचती
है | उपन्यास का अंत सुगंधा के विशाल के साथ मिलन से होता है| विशाल जिस तरीके से उसे बाँहों में भर लेता है और तूफान थमने के बाद जिस
तरीके से अलविदा करता है, उससे सुगंधा रितिक को सोचने लगती है| इसी सोच से यह उपन्यास शुरू हुआ है| लेखिका इस लिव इन
रिलेशनशिप को गंधर्व विवाह की तरह देखती है |
कथानक की दृष्टि से आजकल की नई जीवन शैली को विषय बनाया गया है, लेकिन यह जीवन अभी तक बड़े शहरों में फैला है| कस्बों में इसकी
स्वीकार्यता न के बराबर है| लेखिका महानगरों और कस्बों के संबंध को लेकर तुलना भी करती है| गर्भधारण को लेकर एक तुलना देखिए – “मुझे
नहीं पता था कि महानगरों की स्त्रियाँ लिव इन रिलेशनशिप में अपनी देह को गर्भधारण
करने से कैसे मुक्त रख पाती हैं| मैं उनके जैसे जीना चाहती थी, और
जी भी रही थी, लेकिन
अपने कस्बाई ढंग से, जहाँ
संकोच, बाधा, बंधन
अधिक थे, उन्मुक्तता
कम|” (पृ.
-127)
लेखिका ने भले ही उपन्यास का विषय लिव इन रिलेशनशिप को बनाया है, लेकिन इसके माध्यम से वह समाज की दशा, समाज में स्त्री की
स्थिति, दांपत्य संबंधों को भी विषय बनाती है, स्वतंत्रता का
प्रश्न उठाती है| स्त्री की समस्याएं
इस उपन्यास के केंद्र में हैं| दांपत्य संबधों का हाल वह अपने
माता-पिता के माध्यम से बड़ी सजीवता से प्रस्तुत करती है -
“माँ
और पापा जब आपस में झगड़ते तो उनके झगड़े को सुन कर कोई यह नहीं कह सकता था कि पापा
कॉलेज में प्रोफेसर हैं और माँ एम.ए. उत्तीर्ण महिला हैं| यदि
बुंदेली कहावत में कहा जाए तो दोनों आपस में कुंजड़ों की तरह लड़ते थे| दोनों
के बीच हाथापाई भी हो जाती|” (पृ.
- 35)
स्त्री और पुरुष संबधों के बार-बार परिभाषित किया गया है| पुरुष स्त्री को गुलाम बनाने का प्रयास करता है और स्त्री जाने-अनजाने
पुरुष के अनुसार ढलती जाती है - “यह स्त्री का अपना दोष है कि वह पुरुष
को धीरे-धीरे असीमित छूट देती चली जाती है |” (पृ. – 125)
सुगंधा विवाह के विरुद्ध है, क्योंकि वह अपनी मर्जी से जीना चाहती है, लेकिन वह भी ख़ुद को विवश पाती है| वह किस प्रकार रितिक
के अनुसार जीने लगी है, इसके बारे में वह लिखती है –“यूँ तो हम दोनों होटल
में ही खाना खा कर घर लौट सकते थे, किंतु रितिक को
काम-तृप्ति के बाद उदर तृप्ति अधिक पसंद थी| मैं अवचेतन में उसके
अनुरूप ढलती जा रही थी, संभवत:
यह स्त्री प्रकृति का स्वभाव था| स्त्री स्वयं को ढल जाने देती है पुरुष
की इच्छाओं के अनुरूप|” (पृ.
–
76)
वह पुरुषों की मानसिकता को भी दिखाती
है - “हर
विवाहित पुरुष यूँ भी दूसरी औरतों को मूर्ख बनाने के लिए पत्नी पीड़ित होने का ढोंग
करने में तनिक भी नहीं हिचकता है|” (पृ. – 13)
स्त्री के प्रति पुरुषों के नजरिये का ब्यान है - “अकेली
औरत को रखने वाले तो बहुत मिल जाते हैं, घर देने वाला कोई
नहीं मिलता|” (पृ.
–
50)
स्त्री की दशा की जिम्मेदारी पुरुषों पर है - “स्त्री
वेश्या बनती है, क्योंकि पुरुष उसकी देह के बदले उसे पैसे देने कोई तैयार रहता है, स्त्री
दासी बनकर रहती है, क्योंकि पुरुष बदले में दूसरे पुरुषों से उसकी रक्षा करता है| पुरुष
जो बनाता है, स्त्रियाँ
वह बनने को तैयार हो जाती है, क्योंकि वह जीना चाहती है|” (पृ. – 70)
पुरुष स्त्री को उसकी विशेषताओं के कारण ही प्रताड़ित करता है –
“प्रकृति
ने स्त्री देह की जो विशेषताएँ दी हैं, उन्हीं विशेषताओं को
पुरुष स्त्री के विरुद्ध सदियों से इस्तेमाल करता आ रहा है| वह
औरत को डराता है कि प्रकृति ने तुम्हें गर्भवती होने की जो विशेषता दी है उसी से
मैं तुमको कुलटा और कलंकिनी बना दूँगा| सेक्स करेंगे हम
दोनों, लेकिन दोषी कहलाओगी केवल तुम ..” (पृ. – 204)
लेखिका स्त्री के चरित्र को भी उद्घाटित करती है -
“स्त्रियों
के लिए प्रेम का पात्र बार-बार बदलना संभव नहीं होता है| देह-पात्र
बदल सकते हैं, नेह-पात्र
नहीं|” (पृ.
–
116)
वह स्त्री को कमजोर मानने को तैयार नहीं - “एक
स्त्री पुरुष के सहारे नहीं बल्कि अपने स्वयं की दृढ़ता के सहारे जिन्दगी का सामना
कर सकती है |” (पृ.
–
147)
लिव इन रिलेशनशिप जैसे विषय के कारण सेक्स संबधों का वर्णन होना स्वाभाविक
है, क्योंकि वे उन्मुक्त जी रहे हैं| बराबरी के स्तर पर
जी रहे हैं| वह रितिक की सोच बताती है -“उन पेशेवर लोगों की चेष्टाएँ
देख-देख कर रितिक को भी लगता है कि मैं उन फिल्मों की नायिका की तरह पेश आऊँ, अब
यह हर आसन में संभव तो नहीं है...|” (पृ. – 126)
सेक्स करने को पुरुष भले सदा आतुर रहें, लेकिन उनके शरीर की सीमाएँ
हैं, लेखिका ने इसे भी स्पष्ट किया है - “हम देर रात तक जागते
और एक से अधिक बार एक ही खेल को दोहराने का प्रयास करते| यह
प्रयास रितिक को अधिक करना पड़ता| वह पुरुष जो था|” (पृ. – 64)
लेखिका ने सेक्स के साथ-साथ प्रेम को भी दिखाया है और प्रेम के प्रभाव को
भी –
“जब
आप किसी को प्रेम करते हैं तो उसकी हर बुराई, हर कडवी सच्चाई की
अनदेखी करने लगते हैं|” (पृ.
–
160)
रोमांस पर भी विचार किया है, जो आज के दौर में समाप्त हो रहा है -
“मुझे
तो कभी-कभी ऐसा लगता है कि इस दुनिया से रोमांस कम होता जा रहा है| अब
तो जमाना तेज गति का है| दो
विपरीत लिंगी परस्पर मिले, आपस
में हाय-हूय की, अधिक
हुआ तो गाल से गाल सटाकर सार्वजनिक तौर पर चुंबन का प्रदर्शन किया, यदि
उचित वातावरण मिल गया तो एक-दूसरे के होंठों को लॉलीपॉप की तरह चूसने लगे| इसके
बाद सीधे बिस्तर पर| हो
गया रोमांस| इसके
बाद तू उधर, मैं
इधर| ऊँहूँ!
यह रोमांस तो नहीं है|” (पृ.
–
123)
लेखिका ने आधुनिकता की दुहाई देने वाले समाज के पिछड़ेपन को बड़ी सुंदरता से
वर्णित किया है, रितिका का कहना सच ही है – “हे
भगवान ! इस देश की नारी अपने मुँह से कंडोम का उच्चारण करना कब सीखेगी ?” (पृ. – 124)
सुगंधा की माँ उससे हर बात सांझी करती है, लेकिन सेक्स के बारे
में ज्ञान नहीं देती – “ मैं अपने स्त्रीत्व के लगभग हर ज्ञान के
लिए अपनी सहेलियों पर निर्भर रही |” (पृ. – 125)
इसी पिछड़ेपन के कारण स्त्रियों की दशा शोचनीय है| हालात ये हैं - “ हम अपने बाहरी कपड़े आँगन में बंधी रस्सी
पर सुखाते थे, किंतु ब्रा, पैंटी
और माहवारी के कपडे कमरे में ही सुखाते थे| यदि कोई कमरे में आता
तो हम उसे झट से किसी और कपड़े से ढांक देते |” (पृ. – 52)
स्वतंत्रता इस उपन्यास का महत्त्वपूर्ण विषय है| स्वतंत्रता को लेकर लेखिका सुगंधा के माध्यम से लिखती है –
“ यह
सच मेरे आगे खुली किताब की तरह था कि चाहे स्त्री हो या पुरुष अपनी स्वतंत्रता की
घोषणा करने के लिए अपनी कामवासना को ही माध्यम के रूप में चुनता है| स्त्री-स्वातंत्र्य
की बातें करने वाली महिलाएं भी यौन- स्वातंत्र्य के लिए आवाज उठाती हैं|” (पृ. – 191)
लेकिन स्वतंत्रता का अर्थ वह भी नहीं, जो आमतौर पर समझ
लिया जाता है –
“लिबरेशन
का मतलब शराब पीना नहीं होता है, हर शराब पीने वाली औरत स्वतंत्र हो यह
आवश्यक तो नहीं और हर स्वतंत्रता प्रिय औरत शराब पिए यह भी जरूरी नहीं है|” (पृ.
–
141)
स्वतंत्रता को लेकर उसे यह महसूस होता है कि भारत में नारी-स्वतंत्रता अभी
दूर की कौड़ी है, खुजराहो में विदेशी युवतियों को देखना मन में दबी पीड़ा की अभिव्यक्ति ही है
–“मेरा
ध्यान उन दो विदेशी औरतों पर केंद्रित हो गया जिनमें से एक ने खुले कंधों वाला
ट्यूब-टॉप पहन रखा था और दूसरी ने पतली बद्धियों वाला होजरीमेड बनियाननुमा कुरता| दोनों
ने ब्रा नहीं पहन रखी थी| उनके
चेहरे के हावभाव से लग रहा था कि उन्हें दुनिया की कोई परवाह नहीं है| उन्हें
जो पसंद है, जिनमें
उन्हें आराम मिल रहा है, वह
उन्होंने पहन रखा है|” (पृ.
–
174)
लेखिका नारी-स्वतंत्रता के लिए आर्थिक सबलता का महत्त्व प्रतिपादित करती है
- “आर्थिक
क्षमता पुरुषों को ही नहीं स्त्रियों को भी आत्मविश्वास से भर देती है, उन्हें
आत्मनिर्भर बना देती है |” (पृ.
–
81)
समाज के अनेक रूप भी इस उपन्यास में उभरे हैं| समाज स्वार्थी है, भ्रष्ट है, दोहरे नियमों को मानने वाला है| इसके कई उदाहरणों
द्वारा बताया गया है| समाज का चित्रण करते हुए वह लिखती है – “आजकल
जमाना ऐसे ही लोगों का है| वही
सुखी हैं जो कामचोर हैं, वही
सुखी हैं जो दादागिरी करते रहते हैं, वही सुखी हैं
जो अपने अधिकारी को साम-दाम-दंड-भेद से पटाकर चलते हैं| मुझमें
इनमें से एक भी गुण नहीं है| आज के समय में काम करने की योग्यता को
गुण नहीं, अवगुण की श्रेणी में गिना जाता है| यदि आप सिफारिशी हैं
तो सर्वाधिक योग्य हैं|” (पृ.
–
26)
सच को यहाँ सच नहीं कहा जाता - “यही
तो दुनिया है, सुगंधा
! बुरे को बुरा कहने की हिम्मत किसी में नहीं होती, जबकि अच्छे को सब बुरा कहने
लगते हैं |” (पृ.
–
62)
दोहरापन इस समाज में हर जगह व्याप्त है – “दरअसल हम हर कदम पर
दोहरेपन को जीते हैं| अपना
लाभ हमें वैधानिक लगता है, अपनी
सफलता हमें न्यायोचित लगती है और अपना जीवन हमें सामाजिक लगता है| इसके
विपरीत दूसरे का लाभ, दूसरे
की सफलता और दूसरे का जीवन दोषपूर्ण दिखाई देता है|” (पृ. – 112)
शिवलिंग को पूजा जाता है और यौन-शिक्षा पर चुप्पी साध ली जाती है| प्रेम को लेकर भी स्थिति यही है – “हम
राधा-कृष्ण की उपासना करते हैं और प्रेम को ही आपराध मानते हैं|” (पृ. – 119)
पुरुष के प्रति समाज का नजरिया अलग है और स्त्री के लिए अलग –
“उनके
लिए मैं एक ‘खेली-खाई
औरत’ थी| कितना
त्रासदीपूर्ण है अपने स्वयं के बारे में लोगों के इस विचार को महसूस करना| ‘खेली-खाई
औरत’ से
प्रतिध्वनित होने वाली, औरत
की अस्मिता को छिन्न-भिन्न करने वाली चुभन| कभी किसी पुरुष के
लिए ऐसी उक्ति सुनी है, ‘खेला-खाया
मर्द’!” (पृ.
–
154)
इस दोगलेपन की पीड़ा उपन्यास में सर्वत्र दिखती है, लेकिन यह समाज मनुष्यों
ने ही बनाया है - “मनुष्य
के लिए सामान्य और असामान्य व्यवहार की रेखा भी तो स्वयं हम मनुष्यों ने ही खींची
है| यह
गलत है, यह
सही है| यह
शालीनता है, यह
अश्लीलता है|” (पृ.
–
12)
लेखिका ने रखैल का अर्थ भी बताया है और रखैल रखने की प्रवृति को भी दिखाया
है| पुरुषों के बारे में लेखिका लिखती है – “पुरुष तो बंधकर भी
उन्मुक्त था, पूर्ण
उन्मुक्त| वह
पत्नी के होते हुए भी एक से अधिक प्रेमिकाएँ रख सकता था, रखैलें
रख सकता था|”(
पृ.
–
31)
प्रोफेसरों के शोध छात्राओं से संबंध शोध के पीछे के सच को भी उजगार करते
हैं| सुगंधा का पिता भी ऐसा ही है| लता पांडे के बारे
में वह बताती है -
“लता
पांडे की योग्यता औसत थी, किन्तु
महत्त्वाकांक्षा उच्च थी| वे
विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बनना चाहती थीं, सो बन गई| चतुर्वेदी
जी एक अदद प्रेयसी चाहते थे, जो उन्हें लता पांडे के रूप में मिल गई|” (पृ. – 115)
सुगंधा का मकान मालिक भी ऐसा ही है, लेकिन समझदार है -
“मैं
प्रोफेसर मटुकनाथ नहीं बनना चाहता और न ही अपनी किसी छात्र को जूली बनाकर लोगों को
अपने प्रेम प्रसंग को सार्वजनिक करने की अनुमति देकर अपने घर में बवाल पैदा करना
चाहता हूँ| समाज
छिपकर सब कुछ करने की अनुमति देता है|” ( पृ. – 120)
लेखिका ने अनेक प्रसंगों के माध्यम से समाज में व्याप्त अन्य बुराइयों को
भी ब्यान किया है| लोग सरकारी मकान को किराए पर चढ़ाते हैं | फौजियों की कैंटीन
से सस्ता सामान खरीदते हैं | मीडिया की स्थिति पर टिप्पणी है, ऑनर किलिंग को लेकर वह लिखती है - “मीडिया
इस शब्द को ग्लोरिफाई कर रहा है| वरना किसी को मारना सम्मान की बात हो ही
नहीं सकता है| मीडिया
को लिखना चाहिए गेस्टापो-किलिंग|” (पृ. – 119)
लेखिका अनेक टिप्पणियाँ करती है, जो जीवन दर्शन का सार हैं – “यदि
मनुष्य हिम्मत न हारना चाहे तो साहस का कोई न कोई बहाना ढूँढ सकता है |” (पृ.
–
17)
“परिस्थितयां
बड़े-बड़े विचार बदल देती हैं|” (पृ. – 74)
“कोई
बुरा महसूस थोड़े ही करना चाहता है| वह तो लगने लगता है, अपने-आप|” (पृ. – 74)
“विकल्पों
की तलाश कमजोर करते हैं, साहसी
नहीं!” (
पृ.
–
76)
“यद्यपि
कल्पना करने और उसके सच हो जाने में जमीं-आसमान का अंतर होता है| तूफान
आने की संभावना महज डराती है, किंतु तूफान आने पर सब कुछ तहस-नहस हो जाता है|” (पृ. – 78)
“हर
समय का भय मनुष्य को रुग्ण बना देता है |” (पृ. – 128)
“कई
बार चाहने और होने में सदियों का अंतराल होता है |” (पृ. – 130)
“ डर
इंसान से अच्छे से अच्छे काम करा देता है जबकि भयमुक्तता कई बार इंसान को ढीठ बना
देती है |” (पृ.
–
140)
पात्रों के दृष्टिकोण से यह उपन्यास सुगंधा केंद्रित नायिका प्रधान उपन्यास
है, जिसके जीवन में माँ का और प्रेमी रितिक का बहुत महत्त्व है| ऋषभ और विशाल दो अन्य प्रेमी हैं, दफ़्तर के कर्मचारी
हैं| लेखिका ने ज्यादा पात्रों का चरित्र सुगंधा के माध्यम से वर्णित किया है, साथ ही उनके कार्यकलाप भी उनके चरित्र को उद्घाटित करते हैं| लेखिका ने पुरुष पात्रों की मनोस्थिति का वर्णन भी किया है| रितिक हो या ऋषभ सुगंधा को एक ही नजरिये से देखते हैं और इसी कारण वह उनसे
अलग होती है| रितिक के बारे में वह लिखती है - “रितिक जानता है कि
दिल की चोट दिमाग की चोट से भी अधिक खतरनाक होती है|” (पृ. – 13)
उसके व्यवहार को लेकर वह बताती है – “रितिक
इतना सभ्य भी नहीं है| क्रोध
में आकर वह गली-गलौच पर उतर आता है|” (पृ. – 122)
सुगंधा के जीवन में माँ का बहुत महत्त्व है| माँ के बारे में वह
बताती है -
“माँ
की एक बात मुझे अच्छी लगती थी कि वे मुझसे कोई बात छिपाती नहीं थीं, भले
ही मुझे समझ में आए या न आए| शायद माँ चाहती थीं कि मैं जल्दी-से-जल्दी
जीवन की सच्चाइयाँ समझने लगूँ और अपना भला-बुरा स्वयं तय करने की क्षमता पा लूँ| सचमुच
मेरी माँ बहुत समझदार और संवेनशील थीं|” (पृ. – 50)
माँ की व्यवहार-कुशलता के बारे में वह लिखती है - “माँ
सचमुच बहुत चौकन्नी रहती थी, संबंधों को लेकर|” (पृ. – 44)
अपने पिता के बारे में वह बताती है – “ बहुत
बाद में पता चला कि पापा ने किसी शोध छात्रा को ‘आश्रय’ दे
रखा था| उस
छात्र का शोधकार्य पूरा होने पर उसे अपने ही महाविद्यालय में लेक्चरर की नौकरी
दिला दी| पहले
कच्ची और फिर जुगाड़ करके पक्की| पापा की अधिकाँश शामें उसी के पास
व्यतीत होतीं|” (पृ.
–
36)
अपने बारे में वह लिखती है कि वह बहुत आदर्शवादी नहीं, वह बताती है - “जब कोई पुरुष मेरे
सामने अपनी भावुकता या लाचारी का रोना रोता है, तो मुझे उससे चिढ़ होने लगती थी|” (पृ. – 171)
सुगंधा के कार्य-किलापों को देखें तो वह विरोधी गुणों वाली युवती है| एक तरफ वह बेहद शर्मीली, तो दूसरी तरफ उन्मुक्त जीवन जीने वाली| वह मजबूत भी है, लेकिन बार-बार कमजोर पड़ जाती है| रितिक भी अक्सर उसे
उसके कमजोर पड़ने पर उकसाता है| सुगंधा दोनों के कमजोर होने को स्वीकार
करती है - “हम
जो जीवन जी रहे हैं, उसके
बारे में अपने मुँह से, अपनी
आवाज में स्वीकार करने से झिझकने क्यों लगे हैं ? कहाँ खोती जा रही है
हमारी दृढ़ता ?” (पृ.
–
114)
दफ़्तर में मौजूद कर्मचारियों के विभन्न गुणों को ब्यान करती है| सिकरवार के बारे में वह लिखती है - “ सिकरवार यूँ तो
मुरैना जिले के रहने वाले हैं, लेकिन बहुत समय तक बघेलखंड के रीवा जिले में पदस्थ रहे,
इसलिए बघेलखंड में बोले जाने वाले मुहावरे, संबोधन आदि उनके संवाद
का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं| जैसे बात-बात में ‘फांसी
लगा देने’ का
मुहावरा बोलना, अपनी
पत्नी के लिए ‘मलकिनी’ संबोधन
का उल्लेख करना आदि-आदि|” (पृ.
–
68)
कीर्ति के बारे में वह लिखती है - “यदि
कोई बात सार्वजनिक करनी हो तो उसे कीर्ति को बता दो|” (पृ. – 69)
वातावरण चित्रण में लेखिका सफल रही है| सिविक सेंटर का सजीव
वर्णन देखिए - “जबलपुर
में सिविक सेंटर नाम की जगह, गोलाकार जगह है, जहाँ
तरह-तरह की दुकानें हैं | वहाँ
पर ठेलों में बिकने वाले स्वादिष्ट चाट-समोसों का खान-पान प्रेमियों में अपना खास
स्थान है|” (पृ.
–
114)
बरसाती शाम का सुंदर चित्रण है - “शाम पौने छह बजे
दफ़्तर से छूटी थी| जाड़े
की शामें कुछ जल्दी ही आ जाती हैं| अँधेरा घिरने लगा था| आसमां
पर छाए काले बादलों ने अँधेरा और अधिक गहरा दिया था| सड़क की लाइटें जला दी
गई थीं जिससे रात घिरने का अहसास हो रहा था|” (पृ. – 15)
अदालत का वर्णन है - “अदालत परिसर किसी मछली-बाजार जैसा
प्रतीत हो रहा था मुझे|” (पृ.
–
135)
संवाद रोचक हैं और कथानक को गति प्रदान करते हैं| संवाद के माध्यम से विभन्न विषयों पर चर्चा होती है, विवाद होता है | विशाल के साथ संवाद कुछ लम्बे जरूर हैं, लेकिन अन्य जगहों पर
संवाद छोटे और चुटीले हैं | संवादों में नाटकीयता का समावेश भी है –“तो सही क्या है ? तुम्हारे
जीवन में मेरा क्या स्थान है ?’ रितिक ने मेरी आँखों में सीधे देखते हुए
पूछा था |
‘ तुम
मेरे दोस्त हो !’
‘ बस
?’
‘ दो
दोस्तों के बीच सेक्स का क्या काम ?’
‘कोई
प्रतिबंध है ?’
‘ नहीं
तो ! फिर भी... रितिक तो मानो मेरा मखौल बनाने पर उतारू था |” (पृ. – 30)
उपन्यास की शैली मुख्यत: आत्मकथात्मक है - “मैं
सुगंधा, हाँ, यही
मेरा नाम है|” (पृ.
–
12)
लेकिन तुलनात्मक शैली का भी भरपूर सहारा लिया गया है| तुलना के माध्यम से ही कथानक को आगे बढाया गया है| भाषा सरल और सरस है| विषय को देखते हुए अश्लीलता को परोसा जा सकता था, लेकिन लेखिका ने इससे
बचने का भरपूर प्रयास किया है| कई शब्दों को अधूरा छोड़ा गया है, जैसे - “देख ये है पे...” (पृ. – 58)
“सबके
सब साले भ्रष्ट हैं, इनके
तो गा... पर लात मारनी चाहिए |” (पृ. – 122)
ऐसा करने से भी पाठक शब्द और भाव समझ
गया है, लेकिन लेखिका का इनसे परहेज करना बताता है कि वह उपन्यास में भाषा के
प्रयोग को लेकर सचेत है|
लेखिका ने लिव इन रिलेशन को लेकर उपन्यास लिखकर न तो इन संबंधों को बुरा
कहा है, न ही इन संबंधों को महिमामंडित करने का प्रयास किया है| सुगंधा का अंत क्या होगा, यह नहीं बताया गया| दरअसल लेखिका ने यथास्थिति को दिखाया भर है और प्रबुद्ध पाठक को सोचने का
समय दिया है| वैवाहिक संबंध कड़वाहट भरें हैं और इनसे मुक्ति कोई हल नहीं लग रही| लेखिका रूसो कि पंक्ति उद्धृत करती है – “हम
स्वतंत्र जन्म लेते हैं, किंतु उसके बाद सर्वत्र जंजीरों जकड़े रहते हैं|” (पृ. – 137)
सुगंधा जंजीरों को तोड़ने का प्रयास करती है| लेखिका इन जंजीरों
को तोड़े जाने की कट्टर समर्थक है और इनको तोड़े जाने का जो तरीका समाज में अपनाया
जा रहा है, उससे अवगत करवाती है, लेकिन समाज कैसे उस स्थिति में पहुँचे यहाँ
पुरुष-स्त्री समान हो, यहाँ औरत दोयम न हो, रखैल न हो| यहाँ रिश्तों का आधार प्रेम हो, इसका दायित्व वह
पाठक के ऊपर छोडती है| रितिक के पिता के रितिक से प्रेम दिखाने जैसे प्रसंगों को छोड़ दें, तो
कथानक तीव्र गति से आगे बढ़ता है और पाठक को बाँधे रखने में सफल होता है| वर्तमान समाज के बदलते रूप और बदलते संबंधों के यथार्थवादी चित्रण करने में
लेखिका सफल रही है|
दिलबागसिंह विर्क
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