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मंगलवार, दिसंबर 27, 2016

प्रबंध और मुक्तक काव्य का मिला-जुला रूप

काव्य-संग्रह - पुरुषोत्तम 
कवयित्री - मनजीतकौर मीत 
प्रकाशक - अमृत प्रकाशन, दिल्ली 
पृष्ठ - 128 ( सजिल्द ) 
कीमत - 200 /-
इतिहास और मिथिहास के अनेक पात्र कवि हृदयों को आकर्षित करते आए हैं, लेकिन जिन पर पूर्व में विस्तार से लिखा जा चुका हो, उन्हें पुन: लिखना बहुत बड़ी चुनौती होता है और जब रामचरितमानस जैसा महाकाव्य उपलब्ध हो तब वही राम कथा लिखना अत्यधिक साहस की मांग करता है | कवयित्री " मनजीतकौर मीत " ने अपनी पहली पुस्तक " पुरुषोत्तम " का सृजन करते हुए ये साहस दिखाया है, जिसके लिए वे बधाई की पात्र हैं | ' पुरुषोत्तम ' प्रबंध और मुक्तक काव्य का मिला-जुला रूप कहा जा सकता है | इसमें रामकथा क्रमानुसार है, लेकिन इसमें शामिल जो 70 रचनाएँ हैं, वे अपने आप में स्वतंत्र भी हैं |

                         कवयित्री ने मन की बात में इसकी प्रेरणा श्री गुरु ग्रन्थ साहिब से मिलने की बात कही है | " श्री गुरु ग्रन्थ साहिब " निर्गुण भक्ति का महाग्रंथ है, लेकिन इसमें राम शब्द का 2533 बार उल्लेख है, यही उल्लेख कवयित्री को दशरथ नन्दन राम के जीवन पर लिखने के लिए प्रेरित करता है | कवयित्री शुरूआती पंक्तियों में लिखती है - 
कण-कण में रमेय है जो / मर्यादा पुरुषोत्तम है वो |
कवयित्री का यह लिखना सगुण और निर्गुण के भेद को मिटाकर देखने का प्रयास है, हालांकि यह कथा सगुण राम की है | यह संग्रह राम कथा को क्रमानुसार कहता है, लेकिन शुरूआती कुछ रचनाएँ राम जन्म के प्रसंग तक पहुंचने के लिए भूमिका का काम करती हैं | पहली रचना ' मर्याद पुरुषोत्तम ' राम के जीवन का सार है, जो इन पंक्तियों से समाप्त होती है - 
नृप परिभाषा बदली जग महि / राजा नाही जन सेवक जो |
कवयित्री भगवान के अवतार धारण पर लिखती है - 
जगत बढ़े जब अत्याचारी / रूप धरे तब आप मुरारी |
और इसके बाद सभी नौ अवतारों के अवतार धारण के कारणों का उल्लेख है | राम के अवतार धारण के पीछे कश्यप-अदिति का तप भी दिखाया गया है -  
कश्यप-अदिति किया तप भारी / ताते प्रसन्न आप मुरारी /
मन इच्छित फल ताहि दीन्हा / कौसल्या-दशरथ कहलाये /
गंगा अवतरण का प्रसंग भी है और इसके बाद मूल कथा शुरू होती है |
                      शुरूआत में कवयित्री ने औलादहीन पुरुष की दशा का चित्रण दशरथ के माध्यम से बड़ी सुन्दरता के साथ किया है - 
सूख रहा जीवन का ताल / अँगना कोई खेले बाल |
राम जन्म का वर्णन करते हुए राम की जन्म तिथि के बारे में लिखा गया है - 
चैतमास औ शुक्ल पक्ष मध्यान्ह काले /
प्रकटे तिथि नवमी जगपालन हारे |
राम के बाल रूप का भी मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया गया है - 
सुंदर मुख सुमधुर अति बैना / कजरारे हैं सुलोचन नैना /
लट घुंघराली मस्तक सोहे / देख देख मन हर्षित होवे /
कवयित्री राम कथा के साथ ही जानकी के जन्म का प्रसंग भी उठाती है | विश्वामित्र के अयोध्या आगमन का प्रसंग और अहिल्या उद्धार का वृत्तांत भी दिया गया है और इनके बाद सिया स्वयंवर का प्रसंग है - 
जनक दुलारी स्वयंवर जब दिया रचाये /
दूर-दूर से राजसभा भूपति आये |
राम के धनुष तोड़ने पर परशुराम का सभा में आना रामचरितमानस के राम-लक्ष्मण-परसुराम संवाद की याद दिलाता है | स्वयंवर के इन दो प्रसंगों के बाद कवयित्री ने राम-सीता मिलन के उस प्रसंग को लिया है जो स्वयंवर से पूर्व आना चाहिए | सीता के आगमन का कवयित्री ने बड़ा प्रभावी चित्रण किया है - 
लैन पुष्प आये फुलवारी / होई गई बगिया उजियारी
युवराज चयन का फैसला दशरथ दर्पण देख कर करते हैं - 
दर्पण आपन मुख निहारे / यौवन बीता राज विचारे |
इस प्रसंग के बाद मंथरा की ईर्ष्या दिखाई गई है और वह कैकेयी को भडकाती है - 
अभी नाही कछु बिगड़ा, कछु सोचो रानी / 
एक रात में पलट दो तुम सबहि कहानी |
पंजाबी के किस्सा काव्य की तरह ' होनी ' का प्रसंग भी है और इसके बाद कैकेयी का कोपभवन में बैठने का प्रसंग है | इन प्रसंगों के बाद सीता की विनती को लिया गया है - 
अंखियन सिया नीर बहाये / राखो मोहे चरनन स्वामी 
राम सीता को समझाते हैं, उधर लक्ष्मण भी साथ जाने की विनती करता है | कवयित्री ने इतिहास द्वारा आमतौर से उपेक्षित रही पात्र उर्मिला के विरह को भी दिखाया है - 
लखन चले भ्रात संग वनवास / कौन बंधाये उर्मिल आस /
               लोगों के विरह और भरत-शत्रु के ननिहाल से लौटने के प्रसंग हैं, कैकेयी के माथे कलंक लगने का उल्लेख है, भरत पश्चाताप करता है | केवट प्रसंग, वन मार्ग और दशरथ का मंत्री से हाल पूछने का वर्णन है | चित्रकूट का वर्णन किया गया है और भरत चरण पादुका को सिंहासन पर विराजमान करता है | कवयित्री शूपर्णखा-राम संवाद दिखाती और शूपर्णखा के परिचय के माध्यम से बड़ी महत्त्वपूर्ण उक्ति कहती है - 
बेटी जन्मी जिस घर नाही / का जाने वह पीर पराई 
कवयित्री ने लंका नगरी की शोभा का बखान किया है | स्वर्ण मृग, सीता की सहायता के लिए लक्ष्मण को भेजना और सीता हरण के प्रसंग हैं | कवयित्री ने सीता विलाप को बड़े मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है - 
हे खग, मृग, हे दशों दिशाओं / हे तरुवर, हे पुष्प लताओं /
कपट वन नहि कोई सहारे / कहो कथा, कोई दशरथ प्यारे |
जटायु युद्ध का प्रसंग भी लिया गया है और राम के विलाप को भी दिखाया गया है - 
तरुवर, पात, लता अरु डारी /
देखा का मृगनयनी नारी / 
दरस दिखाओ सिया प्यारी |   
                        शबरी प्रसंग, राम-हनुमान मिलाप, लक्ष्मण द्वारा सीता के वस्त्र और आभूषण पहचानना, बाली वध, वानरों का सीता की खोज में निकलना और हनुमान को उसके बल स्मरण के सभी महत्त्वपूर्ण प्रसंग कवयित्री ने लिए हैं | लंका में हनुमान का सीता से मिलना, कुशल क्षेम पूछना, अशोक वाटिका को उजाड़ना और रावण-हनुमान संवाद का वर्णन है | इनके बाद समुद्र पर सेतु बनाने का प्रसंग है |
                               कवयित्री ने मन्दोदरी द्वारा रावण को समझाने के प्रसंग को दो भागों में विभक्त किया है | समुद्र पर सेतु बनाने के प्रसंग के बाद मन्दोदरी रावण को समझाती है, इसके बाद रावण का सीता को मनाना, विभीषण को लात मारना, अंगद संवाद हैं और इसके बाद फिर मन्दोदरी रावण को समझाती है |
                      युद्ध का वर्णन सीधे लक्ष्मण मूर्छा प्रसंग से होता है, इसमें राम के विलाप का मार्मिक चित्रण है - 
पल-छीन रैना बीती जाये / अंजली-सुत अबहूँ नहीं आये /
पुनि-पुनि कहत लिखन उर लाये / रामा अंखियन नीर बहाये |
संजीवनी बूटी लाने का वर्णन है, सीता की अशोक वृक्ष से विनती है, तो रावण के मन में उत्पन्न हुई शंका को भी दिखाया गया है -
बार-बार ऐहि मन विचारे / शंका बार-बार सिर धारे /
काज नहीं यह जन साधारे / नर हैं या नारायण आये |
कवयित्री ने राम-रावण युद्ध का मनोहारी चित्रण किया है -
दशरथ नन्दन तीर चलाये / वर्षा बान करत रघुराये /
घायल होत निशाचर भारी / गिरत-पड़त असंख्य संहारी |
इस युद्ध का वृत्तांत सीता को त्रिजटा द्वारा सुनाया जाता है |
                         कवयित्री ने रावण वध का प्रसंग नहीं दिया जो अखरता है लेकिन सीता को वनवास पर भेजना इसे प्रचलित राम कथा से अलग करता है | इससे पूर्व अग्नि परीक्षा, सीख और हनुमान का हृदय चीरना प्रसंग लिए गए हैं | यह पुरुषोत्तम की कथा है लेकिन कवयित्री नारी पीड़ा को बड़े सुंदर तरीके से इसमें शामिल करती है और राम से प्रश्न पूछती है - 
पूछे राम हर युग नारी / काहे सीता राज निकारी |
वह सीता के दुर्भाग्य का जिक्र भी करती है - 
कैसा भाग सिया लिखाई / बोझ धरा सम सद ही उठाई |
कवयित्री पुरुषोत्तम की कथा का अंत सीता की महानता से करती है - 
धरती-पुत्री धरती न्याई / दूजी जग नहीं सिया बनाई /
                      कवयित्री ने शुरू में ही कहा है कि उनके मन की इच्छा थी कि किसी सामाजिक कृति से पूर्व श्री चरणों को अर्पित कृति लिखूं | पहली कविता मंगलाचार के रूप में रखने की परम्परा तो रही है लेकिन पूरी कृति ही भगवान के नाम करने का यह अनूठा प्रयास है | कवयित्री ने यह भी स्वीकार किया है - 
राम रस में डूबा मन न तो किसी संदेश अथवा का दावा करता है और न ही किसी शिल्प और शैली के निर्वहन का | 
हालांकि इसे कवयित्री की विनम्रता ही कहा जाना चाहिए | इस कृति में अनेक जगहों पर चौपाई छंद के सुंदर उदाहरण मिलते हैं | राम कथा के लिए रामचरितमानस को आधार बनाया गया है और इसका प्रभाव स्पष्ट दिखता है | भाषा मानक हिंदी की बजाए राम कथा की पारम्परिक भाषा अवधि के निकट है लेकिन भावानुकूल होने के कारण कठिन प्रतीत नहीं होती | नारी की पीड़ा को अंत में जगह देकर कवयित्री ने इस कथा को सार्थक मुकाम तक पहुंचाया है, जिसके लिए वह बधाई की पात्र है |


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दिलबागसिंह विर्क 

2 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर विवेचना।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (31-12-2016) को "शीतलता ने डाला डेरा" (चर्चा अंक-2573) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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