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सोमवार, दिसंबर 12, 2016

लिव-इन-रिलेशनशिप को जायज ठहराता नॉवेल

नॉवेल - मुसाफ़िर Cafe
लेखक - दिव्य प्रकाश दुबे 
प्रकाशक - हिन्द युग्म & Westland Ltd.
कीमत - 150 /-
पृष्ठ - 144 ( पेपरबैक )
हिंदी ‘ नॉवेल ’ | उपन्यास को अब नॉवेल ही कहना ठीक होगा | हिंदी उपन्यास को पढ़ते हुए जब अंग्रेजी शब्दकोश को देखना पड़े तो फिर हिंदी उपन्यास ही क्यों पढ़ा जाए, अंग्रेजी नॉवेल क्यों नहीं ? दिव्य प्रकाश दुबे का उपन्यास “ मुसाफ़िर Cafe ” पढ़ते हुए यही ख्याल आया | अंग्रेजी शब्दावली का प्रयोग पहली बार हुआ हो ऐसा नहीं लेकिन अंग्रेजी शब्दों को देवनागरी की बजाए रोमन में लिखने का चलन हिन्द युग्म प्रकाशन का सुनियोजित क़दम है और संभव है भविष्य में हिंदी उपन्यास और हिंदी Novel अलग-अलग विधाएं हो जाएं लेकिन एक बात है कि जब अंग्रेजी शब्दों को रोमन में लिखना था तो सभी अंग्रेजी शब्दों को ही रोमन में लिखा जाना चाहिए था | कहीं-कहीं यह प्रयोग लेखक और प्रकाशक भूल गए लगते हैं, जैसे चौराहा और हरिद्वार अध्याय में बहुत से अंग्रेजी शब्द हैं – अबोर्ट, प्रेजेंट, रिवाइंड, कनेक्शन, ट्रेनिंग, एडजस्टमेंट आदि | देवनागरी में अंग्रेजी शब्दावली का प्रयोग अन्यत्र भी है | ऐसे में दोहरे मापदंड रखने के पीछे कोई उद्देश्य समझ नहीं आया | भाषा का यह प्रयोग हिंदी को कितना बिगाड़ेगा या हिंदी साहित्य का कितना भला करेगा यह भविष्य पर छोड़ते हुए इस उपन्यास में कई अन्य अच्छे-बुरे पहलुओं पर नजर दौड़ाई जा सकती है |  

                 कथानक के दृष्टिकोण से यह सुधा-चंदर की कहानी है | लेखक शुरू में ही कह देता है कि इसे ‘ गुनाहों के देवता ’ से जोड़कर न पढ़ा जाए | वह लिखता है – 
मुझे भारती जी को रेस्पेक्ट देने का यही तरीका ठीक लगा |
          ‘ गुनाहों के देवता ’ को छोड़कर अगर बात सिर्फ “ मुसाफ़िर Cafe ” की हो तो यह लिव-इन-रिलेशनशिप की कहानी है | हालांकि लेखक ने इस उपन्यास को किन्हीं भागों में विभक्त नहीं किया लेकिन इसे दस साल के अंतराल के आधार पर दो भागों में बांटा जा सकता है | पहले भाग के भी कुछ उपभाग हो सकते हैं | कहानी शीर्षक से लेकर चौराहा शीर्षक तक का उपन्यास पहले भाग का पूर्वाद्ध कहा जा सकता है और हरिद्वार से लेकर मसूरी क्लब तक के अध्याय को इस का भाग का उतरार्द्ध कहा जा सकता है | दस साल के बाद की कहानी उपन्यास को शिखर तक लेकर जाती है | पात्रों की काफी कमी है इस उपन्यास में | पम्मी नाम के तीसरे पात्र का प्रवेश पृष्ठ 96 पर जाकर होता है | 95 पेज तक सिर्फ चंदर और सुधा का फैलाव है, जो उपन्यास के दृष्टिकोण से स्वाभाविक नहीं | चंदर की माँ की हल्की-सी झलक पृष्ठ 86 पर है, लेकिन उसे उपन्यास का पात्र नहीं कहा जा सकता | पृष्ठ 127 पर जाकर विनीत और अक्षर दो नए पात्र आते हैं | पात्र चित्रण के दृष्टिकोण से सिर्फ चंदर और सुधा का उपन्यास है | सुधा बोल्ड है लेकिन चंदर उतना भोला नहीं जितना लेखक ने दिखाया है | सुधा के सांकेतिक आमन्त्रण को वह क्यों नहीं समझता यह समझ से परे है | लेखक ने सारा कुछ नायिका के मुंह से ही कहलवाया है | वह कहती है –
तुम इतने फट्टू हो कि अगर मैं बोल भी दूं कि गले लगा लो तो भी तुम्हारी हिम्मत नहीं होगी |
यहाँ तक कि आखिर में उसे कहना पड़ता है –
ब्रा स्ट्रैप खोल दो |
           उपन्यास के संवाद छोटे तो हैं लेकिन पहले भाग के पूर्वार्द्ध के संवाद इस उपन्यास का कमजोर पहलू कहे जा सकते हैं अगर लेखक वहाँ संवादात्मक शैली की अपेक्षा किसी अन्य शैली को अपनाता तो हो सकता है उपन्यास का आकार 20 पृष्ठ कम होता लेकिन इससे उपन्यास ज्यादा सुगठित होता | हालांकि यह नहीं कि संवाद व्यर्थ हैं अपितु विस्तार अधिक है, जिससे बचा जा सकता था, फिर भी कई जगह बड़ी महत्त्वपूर्ण बातें इन संवादों के माध्यम से कही गई हैं - 
" वो रिश्ते कभी लंबे नहीं चलते जिनमें सब कुछ जान लिया जाता है । "
" तो कौन से चलते हैं ?"
" जिनमें कुछ-कुछ बचा रहता है जानने को । "
           पहले भाग के उतरार्द्ध के बाद संवाद कम हैं, लेखक कहानी कहता है या फिर पम्मी को नियंत्रित रखता है, जिससे उपन्यास में कसावट आती है | मुंबई और मसूरी का चित्रण है। मुंबई के बारे में चन्दर कहता है -
मुंबई की सबसे खराब बात यही है कि यहाँ अकेले रोने के लिए भी जगह बड़ी मुश्किल से मिलती है ।   
मुंबई के लोगों के बारे में लेखक टिप्पणी करता है -
मुंबई में लोग एक वादे, एक मीटिंग के भरोसे ज़िन्दगी गुजार देते हैं |
लेखक मुंबई और मसूरी की तुलना भी करता है – 
चंदर को मुंबई के ट्रैफिक की इतनी आदत हो चुकी थी कि सड़कें उसको गोद जैसी लगीं | मुंबई की सड़कों पर सुकून नहीं था और मसूरी की हर एक चीज में उसको सुकून दिख रहा था |
वह शहर की नापतौल का फार्मूला भी देता है - 
शहरों की नापतौल वहाँ रहने वाले लोगों की नींद से करनी चाहिए । शहर छोटा या बड़ा वहाँ रहने वालों की नींद से होता है । ठिकाना तो कोई भी शहर दे देता है, गहरी नींद कम शहर दे पाते हैं ।
शहर के बारे में एक और धारणा भी इस उपन्यास में है - 
शहर छोटा हो तो दिन बड़े हो जाते हैं । 
         लेखक प्रकृति और पात्रों के अन्तरंग पलों के अनेक चित्र भी प्रस्तुत करता है | चंदर और सुधा के प्रथम मिलन को वह यूं चित्रित करता है –
चंदर और सुधा दोनों ने एक-दूसरे के समन्दर को अपने होठों से छुआ | ऐसे छुआ जिससे एक-दूसरे का कोई भी कोना सूखा न रहे | सुधा ने चंदर की महक से सांस ली | चंदर ने कमरे के अँधेरे को अपनी आँखों में भर लिया | कपड़ों ने अपने-आप को खुद ही आजाद कर लिया और कमरे के कोने में जाकर पसर गए |
लेखक ने वातावरण को भी पात्रों के माध्यम से देखने का प्रयास किया है –
बाथरूम देखकर ऐसा लग रहा था जैसे अगर यहाँ दो लोग साथ नहीं नहाएँ तो बाथरूम बुरा माने सो माने, छत से छन के झाँकती हुई धूप भी बुरा मान जाएगी |
लेखक कमरे का मानवीकरण करता है –
चंदर के कमरे में पहुंचते ही बिस्तर ने उठकर उसको गले लगा लिया | नींद उसका सिर सहलाने लगी | कंबल ने उसको ओढ़ लिया |
लेखक ने विदाई को भी बड़ी खूबसूरती से चित्रित किया है –
न सुधा कुछ बोली, न चंदर, न ही बच्चे की वो सहलाहट, न ही घर, न घर की खिड़की, न घर की खिड़की से आ रही धूप, न ही खिड़की से दिखने वाला वो पेड़, न दरवाजा, न अलमारी, न बेड | सब एक साथ बिना आवाज किए फफक-फफक के रो रहे थे | सब कुछ शांत था, सब कुछ सुन्न था | दुनिया चुप थी |
टूटे रिश्ते के बाद की स्थिति के बारे में वह खूबसूरत रूपक बांधता है –
एक हफ्ते में ही उन दोनों का रिश्ता ऐसा हो गया था जैसे बरसात में छाता जिसमें न पूरा भीगते बनता था, न पूरे सूखते |
         लेखक जीवन का फलसफा भी अनेक बार बयाँ करता है | यह फलसफा इस उपन्यास के प्राण हैं, जो कभी पात्रों के माध्यम से व्यक्त किया गया है तो कभी लेखकीय टिप्पणी के रूप में -
जिंदगी की कोई भी शुरूआत हिचकचाहट से ही होती है । बहुत थोडा-सा घबराना इसीलिए जरूरी होता है क्यूंकि अगर थोड़ी भी घबराहट नहीं है तो या तो वो काम जरूरी नहीं है या फिर वो काम करने लायक ही नहीं है । 
जिंदगी के अनिश्चतता के बारे में सुधा कहती है - 
जिंदगी के स्कूल में टाइम-टेबल के हिसाब से क्लास नहीं लगती जो टाइम-टेबल के हिसाब से जिया वो पक्का फेल होता है । 
वह चंदर को समझाती है - 
लाइफ़ मैथ्स जैसी मुश्किल नहीं है यहाँ मानने से नहीं जानने से काम चलता है |
पम्मी के प्रसंग को लेकर लेखक की टिप्पणी भी लाइफ़ के प्रति महत्त्वपूर्ण तथ्य का उद्घाटन करती है –
लाइफ़ को लेकर प्लान बड़े नहीं, सिम्पल होने चाहिए | प्लान बहुत बड़े हो जाएं तो लाइफ़ के लिए ही जगह नहीं बचती |
लेखक ज्यादा सोच-विचारकर जीने के पक्ष में भी नहीं –
बहुत ज्यादा सोच-समझ कर, देख-परखकर बाजार से सामान तो खरीदा जा सकता है, लेकिन जिंदगी को नहीं जिया जा सकता |
लेखक को जिन्दगी अच्छी लगती है क्योंकि वह जगाती है –
जिंदगी की सबसे अच्छी बात यही है कि वो रह-रह हमारी उदासियों और बेचैनियों के बहाने हमें नींद से जगाती रहती है |
नींद भी जिन्दगी के बारे में बताती है –
जब रात में अच्छी नींद आना बंद हो जाए तब मान लेना चाहिए कि आगे जिन्दगी में ऐसा मोड़ आने वाला है जिसके बाद सब कुछ बदल जाएगा |
           लेखक जिंदगी के बारे में ही नहीं सोचता अपितु प्यार, यादें, बातें, उम्मीद आदि के बारे में भी अपने दर्शन का ब्यान करता है | प्यार क्या है ? इस पर अनेक प्रकार से चर्चा है | 
लेखक कहता है –
प्यार जैसा शब्द खोजने के बाद दुनिया ने नए शब्द ढूंढना बंद कर दिया |
चंदर का मत है  –
यही तो समझ नहीं आता न तुम्हें, सड़क पर चलते हुए जैसे गिरा हुआ नोट मिल जाता है न वैसे ही अचानक मिलता है प्यार |
सुधा कहती है –
सेक्स के जस्ट बाद जब लड़की लड़के की आँख में जो कुछ ढूंढती है न वही होता है प्यार और उस ढूँढने में जब पहली बार पलक झपकती है तो वो होती है पहली बातचीत |
समन्दर के किनारे गीली मिट्टी पर चलते हुए उसे लगता है –
प्यार गीली रेत जैसा ही तो होता है | कब पैर के नीचे से फिसल जाए पता नहीं चलता |
प्यार पर ही चर्चा नहीं होती, अपितु प्यार करने वालों पर भी टिप्पणी मिलती है –
जो लोग प्यार में होते हैं वो अपने साथ एक शहर, एक दुनिया लेकर चलते हैं | वो शहर जो मूवी हॉल की भीड़ के बीच में कॉर्नर सीट पर बसा हुआ होता, वो शहर जो मेट्रो की सीट पर आस-पास की नजरों को इग्नोर करता हुआ होता है |
           यादों को लेकर भी अनेक दृष्टिकोण हैं | सुधा का नजरिया बड़ा सीधा-सपाट है –
सू सू आती है सू सू कर लेती हूँ | ऐसे ही याद आती है तो याद कर लेती हूँ |
जब चंदर को सुधा की जाती है तो लेखक कहता है –
यादें सिर पे मंडराने वाले मच्छरों के झुण्ड की तरह होती हैं, कहीं भी भाग जाओ वो सिर पे घेरा बनाकर भिनभिनाने लगती हैं |
          बातों और आदतों को लेकर भी विचार हैं | चंदर का मानना है –
हम बातों से नहीं दूसरे की आदतों से बोर होते हैं |
जिन्दगी में बातें अधूरी ही रहती हैं –
हम सभी अपने-अपने हिस्से की अधूरी बातों के साथ ही एक दिन यूं ही मर जाएँगे |
         उम्मीद के कई चित्र हैं | बच्चे का जन्म नई उम्मीद का प्रतीक है |
हर एक बच्चा पैदा होकर दुनिया का कुछ अधूरा हिस्सा पूरा कर देता है |
लेखक के अनुसार दुनिया के पास उम्मीद ही है –
दुनिया में देने लायक अगर कुछ है तो वो है ‘ एक दिन सब ठीक हो जाएगा ’ की उम्मीद |
         लेखक का मानना है –
आती हुई हर बात अच्छी लगती है, बातें, बारिश, धूप, समन्दर सब कुछ |
गुस्से के बारे में कहा गया है –
गुस्सा जब बढ़ जाता है तो दुनिया को झेलना बड़ा मुश्किल हो जाता है | गुस्सा जब हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो अपने-आप को झेलना मुश्किल हो जाता है |
गलतियों के बारे में लेखक कहता है –
गलतियाँ सुधारनी जरूर चाहिए लेकिन मिटानी नहीं चाहिए | गलतियाँ वो पगडंडियाँ होती हैं जो बताती रहती हैं कि हमने शुरू कहाँ से किया था |
सपनों के बारे में सुधा कहती है -  
सपने टूटते कम हैं छूटते ज्यादा हैं |
फैसले के बारे में लेखक की राय है –
जिनके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता वो फैसले जल्दी ले लिया करते हैं |
व्यक्ति की सूचना उससे जुड़ी वस्तुएं भी देती हैं –
हम अपने कमरे में जैसे रहते हैं उसी से पता चलता है कि सही में हम कौन हैं |
लेखक व्यक्ति को किताबों के माध्यम से जानने की भी बात करता है –
किसी को समझना हो तो उसकी शेल्फ में लगी किताबों को देख लेना चाहिए, किसी कि आत्मा समझनी हो तो उन किताबों में लगी अंडरलाइन को पढ़ना चाहिए |
           लेखक लिव-इन-रिलेशनशिप को उचित ठहराता है | दो लोगों की दोस्ती के बारे में वह कहता है –
दो लोग जब बहुत पास आ जाते हैं तो उनकी अलमारियां एक हो जाती हैं | थोडा और पास आ जाते हैं तो अलमारी में जगह कम पड़ने लगती है |
         उपन्यास का विषय लिव-इन-रिलेशनशिप है तो ऐसे में शादी का विरोध अनेक प्रकार से है | सुधा कहती है – 
शादियों में जो लोग अलग होते हैं वे भी खराब नहीं होते | खराब बस शादी होती है |
उसका तर्क है –
शादी के बाद बिस्तर पर लेटने पर ऊपर पंखें की धूल दिखाई देती है, पंखें की हवा नहीं दिखाई देती |
शादी को लेकर चंदर और सुधा के विचार अलग-अलग हैं | चंदर पारम्परिक शादी को महत्त्व देता है, जिसका सुधा की नजरों में कोई अर्थ नहीं, वह कहती है –
हम शादी को डबलबेड और डबलबेड को शादी समझ लेते हैं |
उसकी नजर में शादी महज सामाजिक बंधन है –
शादी दो लोगों के बीच होती ही नहीं है | शादी की जरूरत ही तब होती है जब दुनिया में तीन लोग हों |   
        वैसे चंदर धन्यभागी है जिसके पत्नी एक भी नहीं लेकिन उसके बेटे अक्षर की दो-दो माएं हैं | ऐसा सबके साथ होता होगा, यह कहना मुश्किल है | उपन्यास को दुखांत नहीं कहा जा सकता और इसका अंत लेखक के इस जीवन दर्शन से होता है –
वैसे भी जिंदगी की मंजिल भटकना है कहीं पहुंचना नहीं | 
लेकिन लेखक यह कहने के बावजूद चंदर, सुधा और पम्मी के भटकाव को रोक ही देता है | शादी कोई किसी से नहीं करता लेकिन परिवार बन ही जाता है यहाँ आप दिन भर बाहर घूमकर शाम ढले लौट सकते हैं | 
              चंदर “ शेखर एक जीवनी ” पढ़ते हुए इस पंक्ति पर रुकता है – 
यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीवनी लिखने लगे तो संसार में सुंदर पुस्तकों की कमी न रहे |
और इसे सोचते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचता है –
किताबें मजा देती हैं और अच्छी किताबें मजे-मजे में पता नहीं कब बेचैनी दे देती हैं |
               लेखक की इस कसौटी पर अगर लेखक के उपन्यास को परखा जाए तो यह खरा उतरता है | खासकर पहले भाग के उतरार्द्ध से अंत तक उपन्यास पाठकों को बैचैन करने की क्षमता रखता है |
              साहित्य रूढ़ परम्पराओं पर चलते रहना ही नहीं होता, नए प्रयोग होते रहने चाहिए लेकिन प्रयोग स्वाभाविक हों तो प्रभावी रहते हैं, जैसे भाषागत प्रयोग प्रयोग के लिए प्रयोग लगता है, वैसा ही अध्यायों का नामकरण भी प्रयोग के लिए प्रयोग लगा | यदि यह नामकरण वर्णमाला के क्रमानुसार होता जैसे उर्दू में शी हर्फी लिखी जाती है तो यह स्वाभाविक लगता, जब नामकरण वर्णमाला के अनुसार नहीं तो क से कहानी, च से चौराहा नामकरण क्यों दिया गया, यह भी समझ से परे रहा |
              प्रयोग करते समय अगर लगे कि इससे साहित्य को समृद्ध किया जा सकता है तो तमाम विरोध के बावजूद उस पर डटे रहना चाहिए लेकिन अगर इससे उस भाषा को नुक्सान पहुंचे जिसमें आप साहित्य का सृजन कर रहे हैं तो लौटने की गुंजाइश भी रखनी चाहिए | हालांकि व्यक्तिगत रूप से “ मुसाफ़िर Cafe ” के भाषागत प्रयोग का विरोध करता हूँ लेकिन इसका हिंदी साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह देखना होगा | अगर यह हिंदी को आगे ले जाने में सफल हुआ तो इसे स्वीकार करने में कोई हिचकचाहट नहीं होनी चाहिए |    
******
दिलबागसिंह विर्क 

2 टिप्‍पणियां:

हिंदी साहित्य ने कहा…

सुन्दर समालोचना।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर और सटीक भी ।

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