BE PROUD TO BE AN INDIAN

मंगलवार, नवंबर 22, 2016

आज़ाद ख़्याली के जीवन दर्शन की बात करता यात्रा वृत्तांत { भाग - 2 }

पुस्तक – आज़ादी मेरा ब्रांड 
लेखिका - अनुराधा बेनीवाल 
प्रकाशन - सार्थक, राजकमल का उपक्रम
पृष्ठ - 204
मूल्य -  199 /-
भारतीयों में आमतौर पर घूमने की प्रवृति कम ही होती है और जो घूमने निकलते हैं, उन्हें घूमने का तरीका नहीं आता | जीने और घूमने के बारे में अक्सर कहा जाता है - 
जीने का मज़ा लेना है तो अरमान कम रखिए 
सफ़र का मज़ा लेना है तो सामान कम रखिए |

                  लेकिन भारतीय आमतौर पर जब भी घूमने निकलते हैं तो ढेर सारा सामान साथ लेकर चलते हैं, उनकी प्रवृति महंगे होटलों में रुकने की होती है | इस बारे में लेखिका का कहना है - 
" आपको नहीं लगता कि हम होटल या हॉस्टल बस सामान रखने के लिए ही लेते हैं ? हम कहीं भी जाते हैं, साथ में दुनिया-जहान का सामान ले जाते हैं | फिर रखने की जगह ढूंढते हैं | अगर सामान ही इतना हो कि कंधों पर आ जाए तो ? फिर तो कहना ही क्या !"
इसी कारण वे लोग घूमने नहीं जा पाते जिनके पास इतना बजट नहीं होता | अनुराधा ने विदेशियों से आज़ादी का तरीका ही नहीं सीखा, घूमने का तरीका भी सीखा | इसका अनुभव अनुराधा को भारत में ही हो गया था |
" जब मैं पहली बार अकेले घूमने निकली थी पुणे से राजस्थान, एक महीने के ट्रिप पर, तब मैंने काफी हद तक जाना था कि पैसा घूमने की प्री-कंडीशन नहीं है | पैसा ज़रूरी है, लेकिन इतना नहीं जितना हमने बना दिया | ज्यादतर दुनिया घूमने वाले बैक-पैकर्स अमीर घरों में पले हुए लोग नहीं होते | वे बस घूमने की आग में पके होते हैं | उन्हें सस्ता ठिकाना, एक छत भर की तलाश होती है | " 
अनुराधा यह महसूस करती है कि भारतीयों में बैक-पैकर बनने की प्रवृति नहीं -
" मैं अकेली एक महीने तक राजस्थान घूमती रही | मैं वहां अकेली घुमक्कड़ नहीं थी | अपने ही जैसे जाने कितने अकेले घुमते लडके-लड़कियों से मैं वहां मिली | लेकिन भारत में होकर भी एक भी भारतीय बैक-पैकर नहीं मिला वहां, जो थे वे सारे के सारे अकेले फिरते फिरंगी !"
फिरंगियों की इसी प्रवृति को अपनाते हुए वह यूरोप भ्रमण पर निकलती है - 
" अब जितना पैसा मेरे पास था, उसमें होटलों में रुकने का ऑप्शन तो था नहीं | तो मैंने अपने डफ़ल बैग में जरूरत के सारे सामान भर लिए | टूथब्रश से लेकर स्लीपिंग बैग तक, ताकि जरूरत आन पड़े तो स्टेशन पर भी सोने का बन्दोबस्त हो जाए | ना लैपटॉप, ना आई-पेड, और ना ही महंगा फोन | बैग में बस इतना सामान कि जरूरत पड़ने पर काम भी आए और गुम होने पर भी दुःख भी ना हो | "
यूरोपीय लोग घूमने पर ज्यादा खर्च नहीं करते | वे मिल-जुलकर सफर करते हैं, एक छत के नीचे अनजान लोगों के साथ रह सकते हैं - 
" काफ़ी सारी गाड़ियां और भी खड़ी थीं और कुछ लोग मेरी ही तरह अपनी लिफ्ट का इन्तजार कर रहे थे | यह टैक्सी स्टैंड नहीं था | यहाँ निजी गाड़ी वाले कुछ यूरो के बदले राहगीरों को लिफ्ट देते हैं | अकेले ड्राइवर को साथ मिला जाता है और तेल के थोड़े पैसे अलग निकल जाते हैं | "               
प्राग में अपने होस्ट डॉ. टॉड के बारे में वह बताती है कि वह किराए पर घर लेकर कम्यून चलाता है | सब गेस्ट सामान लाते हैं और मिलकर खाते हैं | टॉड देर रात तक जागता है, सबके नाश्ते की व्यवस्था करता है | 
              हालांकि लेखिका को लिफ्ट भी मिलती रही और आश्रय भी, लेकिन शुरूआत में यह निश्चित नहीं था, लेकिन वह बेफिक्री के साथ निकलती है - 
" एक यह भी मज़ा रहता है अकेले घूमने का, और बिना बुकिंग के घूमने का - जितने दिन दिल किया, जहाँ दिल किया ठहरे नहीं किया तो निकल लिए | बिना किसी को मनाये या रुठाये | घूमने का आधा मज़ा तो कई बार दूसरों की परवाह करने में ही निकल जाता है | "
इतना ही नहीं लिफ्ट और आश्रय मांगने में भी उसे शर्म महसूस नहीं होती  -
" अकेले घूमने में थोड़ी बेशर्मी तो आ ही जाती है, और यह ज़रूरी भी है ! कोइ ' ना ' ही बोलेगा ज़्यादा से ज़्यादा ? लेकिन हाँ बोल दिया तो ? इसलिए पूछना तो बनता है | हर्ज क्या है | "
उसकी इसी सोच के कारण वह न सिर्फ सफर का मज़ा लेती है अपितु लोगों कि मेहमानवाजी से भी परिचित होती है -
" वैसे भारतीयों की मेहमाननवाज़ी में अगर कभी कोई शक था तो इस ट्रिप के दौरान खत्म हो गया, लेकिन उससे बड़ा शक दूर हुआ गोरों की मेहमाननवाज़ी को लेकर | ऐसा कमल हुआ कि नौ देशों के अपने सफर में मुझे एक भी होटल या हॉस्टल के दर्शन नहीं करने पड़े |"
             लेखिका को इसका लाभ यह भी मिला कि इससे वह अलग-अलग देशों के लोगों को जान पाई | फ़्रांस में वह वरसाय में सविता के पास रुकी | रोहित और सुमन के पास तथा जूही और हरेन्द्र के पास रही | जूही और हरेन्द्र के बीच के तनाव को देखा | वह लिखती है - 
" किसके बिस्तर में मखमल है और किसके बिस्तर में खटमल, यह तो सोने वाले को ही पता होगा न ? और कब मखमल में खटमल आ गया, यह भी | "
यानी विदेश में रह रहे भारतीयों की फेसबुक पर डाली गई परफेक्ट फैमिली वाली तस्वीर के पीछे के कडवे सच को जान पाती है | वह सोचती है - 
" सारी आज़ादी खुद चाहिए और सारी बंदिशें पत्नी के लिए हैं | मनमानी का अधिकार पति को और घर की इज्जत के लिए कुर्बानी पत्नी की ! कितने दकियानूस हैं ये लोग यहाँ आकर भी, शायद और ज़्यादा जितना कि भारत में होते |"
                ब्रस्सल्स में बूढ़ा होकिन उसका होस्ट है | वह कांता से मिलती है, खुशबू के पास रहती है और टेनिस खिलाडी अंकिता को मिलने कॉक्साइड गाँव जाती है | होकिन साठ-पैंसठ साल का एक सरल इंसान है मूलत: स्पेनिश है, ब्रस्सल्स में सरकारी मुलाजिम है और अकेला रहता है | वह लिखती है - 
" होकिन अकेला है, शायद इसीलिए इतना समय है उसके पास | मुझे उसकी लाइफ स्टाइल में अकेले होने के दुःख की झलक कहीं दिखाई नहीं पड़ी | और सच मानिए, मैं खोज रही थी | हमें तो आदत ही नहीं है, यों लोगों को अकेले देखने की |"
कांता रोहतक यूनिवर्सिटी में पढने वाले अश्वेत लडके से प्रेम कर बैठती है और उसके लिए भागकर ब्रस्सल्स आ जाती | लेखिका कहती है कि उनका प्यार फोन वाला नहीं, चिट्ठियों वाला था -
" हरियाणा के जाट परिवार में जन्मी लडकी, घरवालों ने जिसको कॉलेज में भी पढ़ाने का अहसान किया हो, उसे एक अश्वेत से कैसे ब्याह देते ? ना कोई फोन, न कोई ईमेल, न व्हाट्स एप्प, न स्कैप, न जी-टाक और ना ही फेसबुक - मुश्किल है न यकीन करना कि उस जमाने में भी लोग प्यार करते थे | और सिर्फ करते ही नहीं थे, निभाते भी थे |"
खुशबू के माध्यम से वह विदेश आने वाली युवतियों के खेले गए जुए को देखती है -
" इतना बड़ा जुआ कैसे खेल लेती हैं हम लडकियाँ ? अगर किस्मत से पति अच्छा निकला तो काम करने या पढ़ाई करने में मदद करेगा, नहीं तो विदेश में बैठकर रोटियाँ बेलो और फेसबुक पर विदेश की फोटो लगाकर खुश रहो |"
एम्स्टर्डम में वह स्नेहा के पास रूकती है और वहां से बर्लिन के लिए दम्पति से लिफ्ट लेती है | कार में एक लड़की और थी लेकिन चारों चुप रहते हैं | बर्लिन में अब अल्बर्ट मूलर की मेहमान बनती है, वह विज्ञान प्रेमी है | उसके घर पहुंचकर उसे पता चलता है कि कोई और भी गेस्ट वहाँ रह रहा है | वह जिस प्रकार से उसका स्वागत करता है, उसे देखकर वह लिखती है - 
" कॉफी पीते हुए मैं उन के प्रति एक अजीब आभार-भाव से भर गई | एक अजनबी को उन्होंने अपने घर में सिर्फ जगह ही नहीं दी थी, दुनिया में अच्छाई पर उसका विश्वास भी और मजबूत किया था | अब मैं जैसे दोस्त के घर पर ही थी |"
                        बर्लिन से प्राग का सफर वह जिस कार से करती है उसमें पांच लोग थे, जो चार देशों से संबंधित हैं | भारत से दो लोग हैं - एक लेखिका और दूसरा अक्षय | उसके बारे में लिखते हुए वह भारतीयों का सजीव वर्णन करती है - 
" इस ट्रिप के दौरान यह पहला भारतीय था जो मुझे अकेले घूमते मिला था, वरना हम तो ज्यादातर झुंडों में घूमते हैं - ' फलाना-फलाना जगह घूमने जा रहे हैं, चलोगे क्या ?', ' हाँ, हाँ, उनसे भी पुछा है | तुम भी कह देना एक बार |;, ' अरे भाई, जितने ज़्यादा लोग उतना मजा !' हमें अकेले घूमने में जाने कैसा डर लगता है ! अक्षय को अकेले घूमते देख आश्चर्य भी हुआ, ख़ुशी भी | "
प्राग में उसका होस्ट डॉ. टॉड है, जो दुनिया के सभी कोनों में जरूरतमन्दों के लिए तीन महीने की छुट्टी पर है |  उसने उड़ीसा, कोलकाता के गाँवों से लेकर अफ्रीका के जंगलों और अफगानिस्तान के बीहड़ों में काम किया है | वह ' डॉक्टर्स विदआउट बोर्डर्स ' के साथ काम करता है | वह अपने होस्ट का सजीव चित्र भी प्रस्तुत करती है - 
" टॉड नाम था उसका | डॉक्टर टॉड | हंसता चेहरा, दुबला-सा शरीर, सर पर टोपी - अभी तक का मेरा सबसे जवान होस्ट ! चालीस साल का रहा होगा |"
उसके कम्यून के नियमों के बारे में वह लिखती है - 
कोई भी मेहमान उसके घर 2 रोज ही रुक सकता है, बशर्ते कि उसके सामने कोई बहुत जरूरी वजह न आ जाए और रुकने की | टॉड रोज़ नाश्ते के बाद अपने काम पर निकल जाता है | न काम से समझौता, न कम्यून चलाने में कोई ढिलाई |"
टॉड के व्यक्तित्व से प्रभावित हर कोई होता होगा, इसीलिए लेखिका कह उठती है - 
" टॉड और उसका घर मानो लोगों की अंदरूनी अच्छाई को बाहर लेकर आते हैं, तभी यहाँ कभी किसी चीज की कमी नहीं दिखती !"
प्राग से ब्रातिस्लावा जाते हुए उसे न लिफ्ट मिलती है और न ही किसी होस्ट से स्वीकृति | उसने 30 लोगों को रिक्वेस्ट भेजे थे, लेकिन किसी ने उसे हाँ नहीं कही, सिर्फ एक होस्ट इतना आश्वासन देता है कि शायद उसके दूसरे मेहमान न आएं |  इसी आश्वासन को पाकर वह चल पड़ती है | वह ट्रेन से ब्रातिस्लावा जाती है | वह अब होटल में नहीं रुकना चाहती - 
" अब तक लोगों के घरों में रहने का ऐसा चस्का लग गया था कि हॉस्टल या होटल में रहने के नाम से बेरुखी हो चुकी थी | जिस शहर में होस्ट न मिले, जाना ही नहीं वहां - मन ऐसा हो गया था | अजनबी शहरों में घर का मिलना, चाय बना पाना, स्थानीय जानकारी मिल पाना, शहर के बारे में बात कर पाना - यह कोई आसानी से छूटने वाली लत नहीं थी ! अब तो नए शहर के साथ नए घर का भी उतना ही आकर्षण था | "
               उसे अजनबी के घर में रुकने में अब झिझक महसूस नहीं होती थी और न ही डर लगता था | उसकी मांग भी ज्यादा नहीं थी - 
" स, एक आरामदायक सोफ़ा हो, साफ़ बाथरूम हो और चाय बना सकने भर का सामान - ये तीन चीज़ें काफी थीं एक शहर को आसान बनाने के लिए | ऊपर से घर में वाई-फाई और होस्ट अपना लैपटॉप इस्तेमाल करने दे तो सोने पे सुहागा !"
ब्रातिस्लावा में उसका होस्ट विक्टर तीस-बत्तीस साल का रहा होगा यानी लेखिका का हमउम्र पहला होस्ट| वह दो कमरों के फ़्लैट में रहता था | उसके पास कार थी लेकिन शहर में सिर्फ साइकिल चलाता था | उसके बाद में कुछ और मेहमान आ जाते हैं, इसलिए जगह कम पड़ जाती है | ऐसे में विक्टर उसे कहता है -
" Anu, you can sleep with me inside."
लेखिका कहती है कि यह मेरे अटपटा होकर भी अटपटा नहीं, वह अनकम्फर्टेबल नहीं हुई | वह लिखती है - 
" इतनी सरलता और सीधेपन से तो किसी लड़के ने आज तक कॉफ़ी के लिए भी नहीं पूछा था | सवाल सीधा था तो जवाब भी सीधा दिया मैंने |"
उसका जवाब यही था - "No thanks, I'm fine here."
ब्रातिस्लावा से वह बुडापेस्ट पहुंचती है | बुडापेस्ट में होस्ट का इंतजाम सिर्फ एक दिन के लिए होता है | अब तक विक्टर की बात ने उसके मन में झिझक पैदा कर दी थी | अब उसे लड़की होस्ट की चाह होने लगी थी | बुडापेस्ट के होस्ट के बारे में वह लिखती है - 
" मेरे नए होस्ट साहब लूसियन एक स्प्रिचुअल मास्टर थे या होने का दावा करते थे | एक अच्छा, सफल और खुशहाल जीवन जीने के लिए क्या करें - इस बारे में लिखते थे | मौन में कैसे उतरें, आजकल यही पढ़ाते थे और खुद उतर चुके थे | इधर हाल यह कि हम समझ बैठे थे - अध्यात्म भारत की बपौती है !"
शाम को उसे नई होस्ट मिल जाती है - काटा ब्लैसोवस्ज्की | जो नए घर में शिफ्ट हुई है और पहली बार किसी को होस्ट कर रही है | वह उससे बार-बार माफ़ी मांगती है जबकि लेखिका को पहली बार लड़की का होस्ट मिलना राहत देता है, यहाँ वह बेपरवाह कपड़े बदलते हुए बातें कर सकती है | लेखिका तमाम आज़ाद ख्याली के बावजूद महसूस करती है - 
" लड़कों से बातें करते हुए हजार ख्याल रखने पड़ते हैं | इम्प्रेस इतना तो करना है कि सामने वाला इंटरेस्टड रहे और आपको अपने घर में रुका कर पछताए नहीं, और इतना भी इम्प्रेस नहीं करना कि वह आपके प्यार में ही दीवाना हो जाए !"
                   अब वह पेरिस की तरफ लौटने लगती हुई इंसब्रुक जाती है | जिससे वह लिफ्ट लेती है वह चौबीस-पच्चीस साल का युवक है, जो इंसब्रुक यूनिवर्सिटी से पासआउट है और अपनी गर्लफ्रैंड से मिलने जा रहा है | लेखिका को उसका नाम नहीं याद इसलिए वह उसे निराला कहकर ब्यान करती है और यह निराला नाम वह उसके व्यवहार के लिए ही चुनती है | वह यूनिवर्सिटी के होस्टल में हीला नजीबुल्लाह से मिलती है जिसने जामिया से पढ़ाई खत्म की है | इसके बाद वह अपनी होस्ट नीना के पास पहुंचती है जो अपने बॉयफ्रेंड के साथ दो कमरों के सुंदर घर में रहती है | वहां से वह स्विट्जरलैंड जाने का साधन ढूंढती है और साधन न मिलने पर पहली बार महंगी टिकट खरीदती है | बर्न में रुकने की व्यवस्था उसने पहले कर ली थी | उसके होस्ट के घर के दरवाजे पर लिखा था - 
" Come as you are "
इस घर में मैन्युअल और जोशुआ रहते थे | मैन्युअल के बारे में वह बताती है - 
" मैन्युअल का कमरा कुरआन के अलग-अलग अनुवादों से भरा पड़ा है | गीता के भी दो छोटे एडिशन दीखते हैं | बाइबिल भी रखा है | कमरे के पर्दों पर गीता सार लिखा है | "
बर्न से ट्रेन पर बैठकर वह वापस पैरिस आ जाती है |
क्रमश:
दिलबागसिंह विर्क 
******

कोई टिप्पणी नहीं:

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...