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मंगलवार, मार्च 08, 2016

यथार्थवादी, आदर्शवादी और मनोवैज्ञानिक कहानियों का संग्रह

कहानी संग्रह - लेखक की आत्मा 
लेखिका - अर्चना ठाकुर 
प्रकाशन - अंजुमन प्रकाशन 
पृष्ठ - 112
कीमत - 120 / - 
( साहित्य सुलभ श्रृंखला के अंतर्गत 20 / )
यथार्थवादी, आदर्शवादी और मनोवैज्ञानिक प्रवृतियों को समेटे हुए है ' अर्चना ठाकुर ' का पहला कहानी-संग्रह " लेखक की आत्मा ", हालांकि कहीं-कहीं यथार्थवाद और आदर्शवाद अति की सीमाओं को भी छूता प्रतीत होता है । इस संग्रह की बारह कहानियों में एक तरफ सात्विक प्रेम है, तो दूसरी तरफ बदले की कहानी है । लेखक के दुःख का ब्यान भी हुआ है और मनोवैज्ञानिक समस्याओं को भी बड़ी बखूबी उठाया गया है ।

                  कलमघिसवा कहकर वे लेखक की दशा का ब्यान करती हैं कहानी ' लेखक की आत्मा ' में । यह लगभग हर लेखक के शुरूआती दौर की कथा है, जब वह खूब लिख रहा होता है, मगर छप नहीं पाता, लेकिन लेखिका ने कहानी को स्वप्न में ले जाकर एक नया मोड़ दिया है, जिससे यह सिर्फ लेखक की कहानी न रहकर तथाकथित धर्मगुरुओं के पाखंड और दोगले चरित्र को उद्घाटित करती है, साथ ही स्त्री को भोग्य वस्तु समझे जाने की ओर भी इंगित करती है ।
" धर्म के नाम पर स्त्री का व्यापार । स्त्रियाँ कोई साग सब्जी नहीं जिनकी खरीद-फरोख्त की जाए । "( पृ. - 15 ) 
                    ' किरदार ' कहानी का पात्र अनिरुद्ध सागर भी लेखक है और उसकी भावुकता को छला जाता है । इसी प्रकार का छल इस संग्रह की अंतिम कहानी ' तुम्हारे लिए ' में नम्रता से किया जाता है । ' किरदार ' और ' तुम्हारे लिए ' दोनों कहानियों में वो कड़वा सच है , जिसके कारण भावुक लोग स्वार्थी मनुष्यों के हाथों लुटते हैं । 
                       ' बंद कमरे में धुआं ' कहानी मनोविज्ञान के विषय को लेकर बुनी गई है । इस कहानी का आधार ओ.सी.डी. ओब्सेसिक कम्पलिस्व डिसऑर्डर बीमारी है । लेखिका का खुद मनोविज्ञान में एम.फिल. होना इस विषय को निभाने में मदद करता है । इसी कारण उनकी कई अन्य कहानियों में भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण देखने को मिलता है । ' धुलेंडी ' इस दृष्टिकोण से प्रमुख कहानी है । प्रोफेसर की पत्नी इस कहानी का केंद्र बिंदु है, हालांकि इस कहानी की शुरुआत शालिनी की कहानी के रूप में होती है । शालिनी की कहानी को अगर थोड़ा कम विस्तार दिया जाता तो यह ज्यादा प्रभावी हो सकती थी ।  कहानी का अंत तो लघुकथा जैसी मारक क्षमता रखता है, और यह कहानी प्रोफेसर की पत्नी की कहानी बन जाती है, जिससे शालिनी की कहानी अलग-थलग प्रतीत होती है । ' औरत हो क्या ' कहानी भी एक मनोवैज्ञानिक कहानी है । इसमें लेखिका ने बड़े महत्त्वपूर्ण विषय को उठाया है । पुरुषों में स्त्रैण गुणों पाए जाते हैं और ऐसे पुरुष समाज में हंसी के पात्र बनते हैं । सुबोध भी इसी प्रकार का पात्र है । उसका भाई और बहू की सखियाँ उस पर हँसते हैं । सुबोध अंत में दुखी होकर कहता है - 
" ये प्रश्न जीवन पर्यन्त मेरे साथ चला, पर कभी मैंने इसका जवाब नहीं तलाशा । ज़रूरी भी नहीं लगा और न ही अफ़सोस हुआ क्योंकि समझता था स्त्री मन को, उसकी आंतरिक चाह को । पर लगता है आज सोचना पड़ेगा बेटा जी, अगर औरत तुम जैसी हो तो । " ( पृ. - 95 )
                  सुबोध की कहानी कहने के साथ-साथ अगर उसके मन की उठा-पटक का वर्णन और होता तो यह कमाल  की कहानी हो सकती थी, हालांकि बुरी यह अब भी नहीं । ' चिट्ठी में !' कहानी भी मनोवैज्ञानिक कहानी है, इस कहानी में लेखिका ने किशोर लड़की के मन में अंकुरित अहसास को पूरी उम्र निभाने का ब्यान किया है । 
                 इस संग्रह की कहानियों में आदर्शवाद की झलक भी है । ' अनकही ' इसी प्रकार की कहानी है, जो सात्विक प्रेम की बात करती है, हालांकि यह प्रेम एकतरफा है । कविता तो इस किस्से से भ्रमित ही है - 
                        " वो प्रेम था या सिर्फ अहसास, वो शब्द था या पूरी कहानी, नहीं कह सकती पर वो मेरी याद का ऐसा हिस्सा ज़रूर था जो मुझे एक साथ बहार और पतझड़ की याद दिलाता है ।"  ( पृ. - 25 )
           यह आदर्श ' रौशनी ' कहानी में भी है लेकिन कुछ अति लिए हुए । प्रायश्चित के ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं, साथ ही रौशनी के साथ उसका मेल-जोल और रौशनी का खत पढ़ना जैसी कुछ बातें सहजता से गले नहीं उतरती । ' मंथन ' और ' स्वाहा ' कहानियाँ भी अति के दोष से ग्रस्त हैं । ' मंथन ' का पात्र शिबू गूंगा तो है बहरा नहीं, सामन्यत: बच्चे गूंगे और बहरे ही होते हैं । अगर इसे भी स्वीकार कर लिया जाए तो अंत में शीबू का खत लिखना और उसकी आत्मग्लानि अस्वाभाविक लगती है, हालांकि इससे पूर्व का वर्णन बड़ा स्वाभाविक है । ' स्वाहा ' कहानी बदले पर आधारित है । शीतल के मोहभंग को भावुक लड़की का फैसला माना जा सकता है, लेकिन भरी बस में राजेश की मृत्यु इन्हेलर न होने से हो जाना अति है ।
                   ' स्याना कौआ... बैठता है ' एक कहावत को चरितार्थ करती कहानी है । इसमें जीवन के विरोधाभासों का  सटीक वर्णन है । मामा जी जैसे पात्र आम हैं और ऐसे चालाक पुरुषों का ठगी का शिकार होना भी आम है । 
                      लेखिका ने कथानक को विस्तार देने के लिए अनेक विधियों का सहारा लिया है । ' लेखक  की आत्मा  ' कहानी स्वप्न के सहारे कही गई है, ' अनकही ', ' चिठ्ठी में ', और ' मंथन ' कहानियों में फ़्लैश बाइक तकनीक का प्रयोग किया गया है, लेकिन ' मंथन ' कहानी में एक चूक हुई है | कहानी की शुरुआत शीबू से हुई है -
" शीबू के सामने तमंचा रखा था, तमंचे पर उसकी नजर गड़ चुकी थी । ( पृ. - 63 ) 
कहानी का अंत किशन से होता है और पूरी कहानी के अनुसार शुरुआत किशन से होनी चाहिए थी, शुरूआती जो दशा शिबू की है, वह दरअसल किशन की ही होनी चाहिए । संभवतः शुरुआत में किशन को शिबू लिखा गया हो । ' किरदार ' को समय के अंतराल द्वारा पूरा किया गया है । लेखिका कहानियां कहने में विश्वास रखती है, इसलिए वर्णात्मक शैली की प्रधानता है, लेकिन मैं पात्र की मौजूदगी से आत्मकथात्मक शैली का भी समावेश हुआ है । जरूरत के अनुसार संवाद भी हैं । संवाद छोटे हैं, जो कथानक को गति देते हैं । कहानियों में कई पात्रों को कोई नाम नहीं दिया गया है, जैसे कविता का प्रेमी, रौशनी कहानी का पुरुष पात्र, प्रोफेसर की पत्नी । 
                    चरित्र चित्रण की दृष्टि से यह कहानी-संग्रह सफल कहा जा सकता है । प्रोफेसर की अनपढ़ पत्नी की दशा कैसी हो सकती है, उसका सटीक चित्रण है ' धुलेंडी ' कहानी में । अल्पना, शिबू, सुबोध, नम्रता आदि कुछ महत्त्वपूर्ण पात्र हैं । पात्रों का चरित्र कई विधियों से उद्घाटित किया गया है । लेखक खुद संकल्प लेता है - 
" मुझे लिखना है, मुझे लिखना है क्योंकि मैं सिर्फ प्रकाशित होने के लिए नहीं लिखता, मैं लिखता हूँ अपनी आत्मा की संतुष्टि के लिए इसलिए मैं लिखूंगा । " ( पृ. - 15 )
मामा जी को लेखिका खुद परिचित करवाती हैं - 
" मामा जी की नुक्ताचीनी की आदत, और बाल की भी खाल खोज लाने की काबिलियत ही उनका गुण था ।"( पृ. - 28 )
प्रोफेसर की पत्नी का चित्रण प्रोफेसर के इस कथन से होता है - 
'' अब आप जैसी पढ़ी लिखी तो है नहीं, तो क्या जाने मिलना जुलना । चलिए आपने कहा तो मिलवाने ले आया ।''( पृ. - 80 )
अल्पना की जीवन शैली बहुत कुछ कह देती है -  
                             " दिन में कितनी बार नहाती थी वो, अक्सर घर धोती रहती थी । कभी पर्दे, कभी बिस्तर का सिरहाना, पैताना, दिन भर कपड़े धोती, डोरी से भीगे कपड़े जैसे हटते ही नहीं थे । " ( पृ. - 59 )
                 भाषा के दृष्टिकोण से यह कहानी-संग्रह काफी सफल कहा जा सकता है । लेखिका ने अनेक उक्तियों से इसे रोचक बनाया है, जैसे - 
" निराशा की मित्रता नाउम्मीदी से होती है । "( पृ. - 11 )
" जिस मुकदमे का फैसला तय हो उसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं होती । "( पृ. - 30 )
"खबरें हल्की होती हैं, हवा संग बहती चली गई और हवा को रोक पाना नामुमकिन होता है । ( पृ. - 33 )
"एक अपरिचित किताब जिसे छाप कर उसका प्रकाशक  ही उसे बिसरा बैठा हो |"( पृ. - 77 ) 
सटीक उक्तियों के सिवा दृश्यों के चित्रण, घटनाओं के सजीव चित्रण में भी लेखिका सफल रही है |
" तेज रफ्तार सड़क में जैसे सभी कुछ तेजी से भाग रहा था | सड़क किनारे शांत खड़े खंभे भी गाड़ियों संग भागते नजर आ रहे थे |( पृ. - 34 )
प्रतीकात्मकता का भी समावेश है - 
" मैच खतरनाक मोड़ पर था, आख़िरी गेंद और आख़िरी विकेट था | गेंद बाउंड्री पार भी जा सकती थी या कैच भी की जा सकती थी  | ( पृ. - 31 )
                   ' सयाना कौआ...बैठता है ' कहानी का शीर्षक बताता है कि लेखिका भाषा के दूषित प्रयोग की हिमायती नहीं, इसीलिए कहावत को अधूरा कहा गया है, अन्यथा आज के दौर में कुछ लेखक गालियों का प्रयोग भी आम करते हैं | प्रूफ में कुछ गलतियाँ है, लेकिन समग्रत: देखें तो " लेखक की आत्मा " एक सफल कहानी-संग्रह है, जो उम्मीद जगाता है कि अर्चना ठाकुर की कलम से भविष्य में बेहतर कहानियाँ पढने को मिल सकती हैं |
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दिलबागसिंह विर्क 
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2 टिप्‍पणियां:

सुनीता अग्रवाल "नेह" ने कहा…

अर्चना जी को शुभकामनाये यावं बधाई :)

अर्चना ठाकुर ने कहा…

बहुत बहुत धन्यवाद...ये शब्द छोटा है इस व्याख्या के आगे...आपकी कलम ने मृत देह में पुनः जान फूंक दी..असल में आलोचना ही व्यक्ति को आगे बढ़ाती है..सिर्फ तारीफ के कसीदे तो मरने पर भी लोग पढ़ते है...शुक्रिया...अर्चना ठाकुर

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